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पञ्चदशाध्ययनम् ] .. हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[६५५ ___ मूलार्थ-यत्किचित् आहार, पानी तथा नाना प्रकार के खादिम, स्वादिम पदार्थ गृहस्थों से प्राप्त करके जो उस आहार से त्रिविध योग द्वारा बाल, वृद्ध और ग्लानादि पर अनुकम्पा नहीं करता, वह भिक्षु नहीं किन्तु जिसने मन, वचन और काया को भली प्रकार से संवृत किया है, वही भिक्षु है ।
टीका-इस काव्य में यह भाव प्रकाशित किया गया है कि साधु, आहार पानी में रसगृद्धि को छोड़कर, अंगारदोष को हरे तथा संविभागी होकर वृद्ध, बाल और ग्लानादि की रक्षा करे । इसी लिए कहा है कि जो यत्किचित् आहार पानी तथा खादिम स्वादिमादि के मिलने पर उससे मन, वचन और काया के द्वारा वृद्ध, ग्लान और बाल आदि की रक्षा नहीं करता, वह भिक्षु नहीं किन्तु जो मन, वचन और काया को भली प्रकार से संवृत्त करने वाला तथा प्राप्त हुए आहारादि से वृद्ध, ग्लानादि की रक्षा करने वाला हो, वही भिक्षु है । अथवा यहाँ पर 'न' के स्थान में 'ना' समझकर उसका पुरुष अर्थ कर लेने से उक्त गाथा का सरल और सीधा यह अर्थ करना च हिए कि जो 'ना' साधु पुरुष, गृहस्थ के घर से उपलब्ध हुए विशुद्ध आहारादि से बाल, वृद्ध और ग्लान पर अनुकम्पा करता है, वह भिक्षु है, जो कि मन, वचन और काया से संवृत्त है।
इस प्रकार अंगार दोष के त्यागने पर अब धूमदोष के परिहार विषय में कहते हैं
आयामगं चेव जवोदणं च,
सीयं सोवीरजवोदगं च। न हीलए पिण्डं नीरसं तु, __ पन्तकुलाई परिव्वए स भिक्खू ॥१३॥ आयामकं चैव यवौदनं च,
शीतं सौवीरं यवोदकं च । न हीलयेत् पिण्डं नीरसं तु,
प्रान्तकुलानि परिव्रजेत् स भिक्षुः ॥१३॥