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उत्तराध्ययनसूत्रम्
[ पञ्चदशाध्ययनम्
गिहिणो जे पव्वइएण दिट्ठा, अप्पवइएण व संधुया हविज्जा । इहलोइयफलट्ठा, जो संथवं न करेइ स भिक्खू ॥१०॥
तेसिं
गृहिणो ये प्रव्रजितेन दृष्टाः, अप्रव्रजितेन च संस्तुता भवेयुः । तेषामिहलौकिकफलार्थं
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यः संस्तवं न करोति स भिक्षुः ॥१०॥ पदार्थान्वयः—गिहिणो-गृहस्थ जे- जो पव्वइएण - प्रब्रजित होने के पश्चात् दिट्ठा - परिचित होवें व - अथवा अप्पवइएण - गृहस्थावास में संधुया - परिचित हविजा - होवें तेर्सि - उनका इहलोइय- इस लोक के फलट्ठा - फल के लिये जो-जो संथवं - संस्तव न करेइ- नहीं करता स - वह भिक्खू - भिक्षु होता है ।
मूलार्थ - जो पुरुष दीक्षित होने पर वा गृहस्थावास में, परिचित होने वाले गृहस्थों का ऐहिक - इस लोक में होने वाले फल के लिये संस्तव - स्तुति - विशेष परिचय नहीं करता, वह भिक्षु है ।
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टीका - इस गाथा में साधु को पूर्वपरिचित अथवा दीक्षा के बाद परिचय में आने वाले गृहस्थों के साथ ऐहिक फल- वस्त्र पात्रादि की प्राप्ति के निमित्त संस्तव—परिचय करने का निषेध किया गया है क्योंकि इस प्रकार का संस्तवपरिचय करना साधुवृत्ति के सर्वथा विरुद्ध है । किन्तु धर्मोपदेश के लिये इसका निषेध नहीं क्योंकि वहाँ पर किसी ऐहिक फल की आशा नहीं है। अतएव शास्त्रकारों ने साधु को धर्मोपदेश देने की सर्वप्रकार से छूट रक्खी है अर्थात् जो सुनना चाहे, उसको उपदेश देवे और जिसकी इच्छा न भी हो, उसको भी साधु, धर्म का उपदेश देवे परन्तु उसमें किसी ऐहिक फल इच्छा का समावेश न होना चाहिए । यहाँ पर 'संस्तव' शब्द विशेष परिचय के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है ।
अब फिर कहते हैं—