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पञ्चविंशाभ्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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प्रस्तुत गाथा में 'तु' शब्द वाक्यान्तरोपन्यास अर्थ में गृहीत किया गया है। तथा 'च' पूरणार्थक भी है । 'समुदाय' यह आर्ष प्रयोग 'समादाय' का प्रतिरूप है । 'किसी २ प्रति में 'बम्भणे' के स्थान पर 'माहणे' लिखा है। अर्थ दोनों का एक ही है। इस प्रकार पहचान लेने के अनन्तर विजयघोष ने फिर जो कुछ किया, अब उसका वर्णन करते हैं—
तुट्टे य विजयघोसे, इणमुदाहु माहणत्तं जहाभूयं, खुट्टु मे विजयघोषः, इदमुदाह् यथाभूतं, सुष्ठु मे
पदार्थान्वयः -- तुट्ठे - तुष्ट हुआ विजयघोसे - विजयघोष इणम् - यह वक्ष्यमाण वचन कयंजली - हाथ जोड़कर उदाहु - कहने लगा । माहणतं - ब्राह्मणत्व जहाभूयं - यथाभूत, यथार्थ सुटु-भली भाँति मे मुझे उवदंसियं - उपदर्शित किया ।
तुष्टश्च
ब्राह्मणत्वं
कयंजली । उवदंसियं ॥३७॥ कृताञ्जलिः । उपदर्शितम् ॥३७॥
मूलार्थ - प्रसन्न हुआ विजयघोष हाथ जोड़कर इस प्रकार कहने लगा कि हे भगवन् ! आपने ब्राह्मणत्व के यथावत् स्वरूप को मेरे प्रति बहुत ही अच्छी तरह प्रदर्शित किया है ।
टीका- जब विजयघोष ने यह जान लिया कि ये मुनिराज तो मेरे पूर्वाश्रम के भाई हैं, तब उसको बड़ी प्रसन्नता हुई और हाथ जोड़कर जयघोष मुनि से कहने लगा कि भगवन् ! आपने ब्राह्मणत्व के यथावत् स्वरूप को बहुत ही अच्छी तरह से प्रदर्शित किया है। तात्पर्य यह है कि आपने ब्राह्मण के जो लक्षण वर्णन किये हैं, वास्तव में बही यथार्थ हैं । अर्थात् इन लक्षणों से लक्षित वा इन गुणों से युक्त जो व्यक्ति है, उसी को ब्राह्मण कहना चाहिए । इसके अतिरिक्त विजयघोष के प्रसन्न होने के दो कारण यहाँ पर उपस्थित हो गयेये एक तो संशयों का दूर होना और दूसरे वर्षों से गये हुए भ्राता का मिलाप होना । इसलिए वह अतिप्रसन्नचित्त होकर जयघोष मुनि के पूर्वोक्त वर्णन का सविनय समर्थन करने लगा ।
इस प्रकार प्रसन्न हुए विजयघोष ने अपने पूज्य भ्राता जयघोष मुनि से कुछ कहा, अब उसका वर्णन करते हैं
जो