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________________ ११३० ] . उत्तराध्ययनसूत्रम्- [पञ्चविंशाध्ययनम् بی بی بی میری بی بی بی بی بی की गई है । जयघोष मुनि कहते हैं कि कोई व्यक्ति केवल सिर मुंडा लेने से श्रमण नहीं बन सकता, जब तक उसमें श्रमणोचित गुण विद्यमान न हों और न ही कोई पुरुष, मात्र ओङ्कार अर्थात् ॐभूर्भुवःस्वः इत्यादि गायत्रीमन्त्र के उच्चारण कर लेने मात्र से ब्राह्मण हो सकता है। इसी प्रकार केवल अरण्य–वन में निवास कर लेने मात्र से मुनि भी नहीं हो सकता, तथा कुश—दर्भ और वल्कल आदि के पहन लेने से कोई तपस्वी भी नहीं हो सकता । तात्पर्य यह है कि ये तो सब बाह्य के चिह्नमात्र केवल पहचान के लिए ही हैं। इनसे कार्यसिद्धि का कोई सम्बन्ध नहीं । कार्यसिद्धि का सम्बन्ध तो अन्तरंग साधनों से ही है। तथा—'ॐकार मात्र से ब्राह्मण नहीं हो सकता' इस कथन का तात्पर्य यह है कि केवल पाठमात्र को उच्चारण कर लेना ही ब्राह्मणत्व के लिए पर्याप्त नहीं किन्तु ब्राह्मणोचित गुणों का धारण करना आवश्यक है। इसी प्रकार दूसरे नामों के विषय में भी समझ लेना चाहिए। अन्यत्र भी कहा है-'मुण्डनात् श्रमणो नैव, संस्काराद् ब्राह्मणो न वा । मुनि रण्यवासित्वात्, वल्कलान्न च तापसः ॥' इत्यादि । फिर किन कारणों से श्रमणादि हो सकते हैं ? अब इस विषय में कहते हैंसमयाए समणो होइ, बम्भचेरेण बम्भणो। नाणेण य मुणी होइ, तवेण होइ तावसो ॥३॥ समतया श्रमणो भवति, ब्रह्मचर्येण ब्राह्मणः । ज्ञानेन च मुनिर्भवति, तपसा भवति तापसः ॥३२॥ . पदार्थान्वयः-समयाए-समभाव से समणो-श्रमण होइ-होता है, बम्भचेरेण-ब्रह्मचर्य से बम्भणो-ब्राह्मण होता है य-और नाणेण-ज्ञान से मुणी-मुनि होइ-होता है तवेण-तप से तावसो-तपस्वी होइ-होता है । __ मूलार्थ-समभाव से श्रमण, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि और तप से तपखी होता है। टीका-जयघोष मुनि कहते हैं कि श्रमण वह होता है कि जिसमें समभाव हो अर्थात् रागद्वेषादि से अलग होकर जिसके आत्मा में समभाव की परिणति हो रही
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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