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पञ्चविंशाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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नहीं होता, वही ब्राह्मण है । तात्पर्य यह है कि विषयभोग और तज्जनक सामग्री के विषय में जो विरक्त हो चुका है अथवा विषयजन्य सुखों की जिसके हृदय में कल्पना तक नहीं है, उसको हम ब्राह्मण कहते हैं ।
अब वेदों, वेदविहित यज्ञों और उनका अनुष्ठान करने वाले याजकों के विषय में कहते हैं—
पसुबन्धा
सव्ववेया, जट्टं च पावकम्मुणा ।
न तं तायन्ति दुस्सीलं, कम्माणि बलवन्ति हि ॥३०॥ पशुबन्धाः सर्ववेदाः इष्टं च पापकर्मणा । न तंत्रायन्ते दुःशील, कर्माणि बलवन्ति हि ॥३०॥ . पदार्थान्वयः --- पसुबन्धा - पशुओं के वध-बन्धन के लिए सब्ववेया सर्व वेद हैं च - और जट्ठे-यज्ञ पावकम्मुणा - पापक्रमों का हेतुभूत है तं यज्ञ के करने वाले की न तान्ति-रक्षा नहीं कर सकते । दुस्सील- दुराचारी को इह - तुम्हारे मत में कम्माणि - कर्म बलवन्ति - बलवान हैं ह-खेद अर्थ में हैं ।
मूलार्थ — सर्व वेद पशुओं के वध-बन्धन के लिए हैं और यज्ञ पापकर्म का हेतु है । वे वेद या यज्ञ वेदपाठी वा यज्ञकर्ता के रक्षक नहीं हो सकते अपितु पाप कर्मों को बलवान् बनाकर दुर्गति में पहुँचा देते हैं।
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टीका - प्रस्तुत गाथा में वेदों के कर्मकाण्ड की आलोचना की गई है। जयघोष मुनि कहते हैं कि ऋग्, यजुः, साम और अथर्व ये चारों वेद पशुओं के बध-बन्धनार्थ ही देखे जाते हैं। अश्वमेधादि यज्ञों में यूपों का वर्णन आता है ।
यज्ञमण्डप में गाड़े जाते हैं और उनके साथ वध्य पशु बाँधे जाते हैं । इससे प्रतीत हुआ कि वेद प्रायः पशुओं के वध-बन्धनार्थ ही निर्मित हुए हैं । जब ऐसा है, तब तो हिंसात्मक होने से उक्त यज्ञ भी पापकर्म को ही जन्म देने वाला है। यज्ञ के लिए पशुओं की नियुक्ति का उल्लेख मन्वादि स्मृतियों के 'यज्ञार्थे पशवः सृष्टाः' इत्यादि वाक्यों में स्पष्ट रूप से पाया जाता है । इसके अतिरिक्त 'श्वेतं छागमालभेत वायव्यां दिशि भूतिकामः' इत्यादि वैदिक वाक्यों से यज्ञविषयक हिंसा का