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प्रयोविंशाध्ययनम् ]
हिन्दी भाषाटीकासहितम् ।
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पदार्थान्वयः — दीसन्ति - देखे जाते हैं बहवे बहुत से लोए-लोक में पासबद्धा-पाश से बँधे सरीरिणो- जीव मुक्कपासो - मुक्तपाश लहुन्भूओ - और लघुभूत होकर मुणी - हे मुने ! तं- तू कहूं - कैसे विहरसी - विचरता है ।
मूलार्थ - हे सुने ! लोक में बहुत से जीव पाश से बँधे हुए देखे जाते हैं। परन्तु तुम पाश से मुक्त और लघुभूत होकर कैसे विचरते हो ?
टीका - केशीकुमार श्रमण इस चतुर्थ द्वार में गौतम गणधर से पूछते हैं कि हे गौतम ! इस संसार में बहुत से जीव पाश के द्वारा बँधे हुए दीखते हैं । अतएव त्रे दुःखों का अनुभव कर रहे हैं। परन्तु आप उक्त पाश से 'मुक्त और वायु की तरह अतिलघु अर्थात् अप्रतिबद्ध होकर संसार में विचर रहे हैं। सो कैसे ? उक्त कथन का तात्पर्य यह है कि जो प्रतिबद्ध हैं और लघुभूत भी नहीं है, उसका स्वेच्छापूर्वक विचरना नहीं हो सकता । अथवा यों कहिए कि जैसे पशु आदि जीव पाश के बन्धन से दुःख पाते हैं, उसी प्रकार भवपाश से बँधे हुए मनुष्यादि जीव संसार-चक्र में घूमते हुए दुःख पा रहे हैं। परन्तु हे मुनेः ! आप इस से मुक्त होकर संसार में यथारुचि विचर रहे हैं, इसका कारण क्या ? तात्पर्य यह है कि उक्त पाश से आप किस प्रकार मुक्त हुए ?
पाश
अब गौतम स्वामी केशीकुमार के उक्त प्रश्न का उत्तर देते हैं। यथा
ते पासे सव्वसो छित्ता निहन्तूण उवायओ । मुक्कपासो लहुब्भूओ, विहरामि अहं मुणी ! ॥४१॥
तान् पाशान् सर्वशश्छित्वा निहत्योपायतः मुक्कपाशो
लघुभूतः, विहराम्यहं
मुने ! ॥४१॥ . पदार्थान्वयः -- ते - उन पासे - पाशों को सव्वसो- सर्व प्रकार से छित्ता-छेदन करके निहन्तूण - और हनन करके उवायओ - उपाय से मुक्कपासो - मुक्तपाश और लहुन्भूओ - लघुभूत होकर सुणी- हे मुने ! अहं - मैं विहरामि - विचरता हूँ ।
"
मूलार्थ – हे सुने ! मैं उन पाशों को सर्व प्रकार से छेदन कर तथा उपाय से विनष्ट कर, मुक्तपाश और लघुभूत होकर विचरता हूँ ।