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एकविंशाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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ही सर्व प्रकार से रुचि उत्पन्न कर । क्योंकि यह संग महालेश और महाभय उत्पन्न करने वाला है । अत: इसका सर्वथा परित्याग कर । 'अभ्यरोचत' यह आर्ष प्रयोग है । किसी २ प्रति में 'भयाणगं' के स्थान पर 'भयावह' ऐसा पाठ भी देखने में आता है। अब संयमशील पुरुष के कर्तव्य का वर्णन करते हैं। यथा
अहिंस सच्चं च अतेणगं च, तत्तो य बंभं अपरिग्गहं च । पडिवखिया पंचमहव्वयाणि,
चरिज धम्मं जिणदेसियं विऊ ॥१२॥
अहिंसा सत्यं चास्तेनकं च,
'ततश्चाब्रह्मापरिग्रहं प्रतिपद्य • पञ्चमहाव्रतानि,
चरति धर्मं जिनदेशितं विद्वान् ॥ १२ ॥
पदार्थान्वयः — अहिंस- अहिंसा सच्चं - सत्य च - और अतेराग- अस्तेय— अचौर्यकर्म च - पुनः तत्तो - तदनन्तर बंभ - ब्रह्मचर्य य-और अपरिग्गहं- अपरिग्रह च - पादपूर्ति में पडिवज्जिया - ग्रहण करके पंचमहव्वयाणि - पाँच महाव्रतों को चरिज - आचरण करे धम्मं - धर्म को जिणदेसियं - जिनेन्द्रदेव का उपदेश किया हुआ विऊ - विद्वान् ।
च ।
मूलार्थ - विद्वान् पुरुष अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप पाँच महाव्रतों को ग्रहण करके जिनेन्द्र देव के उपदेश किये हुए धर्म का आचरण करे ।
टीका - प्रस्तुत काव्य में विद्वान् अर्थात् संयमशील पुरुष के कर्तव्य का दिग्दर्शन कराया गया है। विचारशील पुरुष को योग्य है कि वह अहिंसादि पाँच महाव्रतों का सम्यक् प्रकार से पालन करे। इनके पालन से ही यह जीव संसारसमुद्र से पार हो सकता है तथा जिनेन्द्र भगवान् के उपदेश किये हुए पिंडविशुद्धि