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विंशतितमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[३२३ उच्छ्रसितरोमकूपः , कृत्वा च प्रदक्षिणाम् ।। अभिवन्द्य शिरसा, अतियातो नराधिपः ॥५९॥
पदार्थान्वयः-उससिय-विकसित हुए हैं रोमकूवो-रोमकूप जिसके यफिर पयाहिणं-प्रदक्षिणा काऊण-करके और अभिवन्दिऊण-वन्दना करके सिरसासिर से अइयाओ-चला गया नराहिवो-नराधिप—स्वस्थान में ।
मूलार्थ विकसित हुए हैं रोमकूप जिसके, ऐसा वह नराधिप-श्रेणिक राजा-उक्त मुनिराज की प्रदक्षिणा करता हुआ शिर से वन्दना करके अपने स्थान को चला गया।
टीका-जब किसी भावुक आत्मा को किसी अपूर्व अर्थ की प्राप्ति होती है, तब उसका समस्त शरीर पुलकित हो उठता है। उसकी रोमराजी विकसित हो उठती है। इसी प्रकार उक्त मुनिराज से महाराजा श्रेणिक को जब धर्म की प्राप्ति हो गई अर्थात् अनाथता की व्याख्या करते हुए मुनिराज से जब उसने धर्म के मर्म को समझकर उसे ग्रहण किया, तब उसका शरीर प्रसन्नता के कारण रोमांचित हो उठा और उक्त मुनि की प्रदक्षिणा करके शिर से अभिवादन करता हुआ वह अपने स्थान को-अपने राजभवन को प्रस्थित हुआ। इसके अतिरिक्त इतना और भी स्मरण रहे कि जो जीव विनयपूर्वक प्रश्न पूछते और अपने मन में पूर्ण रूप से जिज्ञासा रखते हैं, उनको अवश्यमेव अभिलषित वस्तु की प्राप्ति हो जाती है। जैसे कि महाराजा श्रेणिक को अभिमत धर्म की प्राप्ति हुई। ___ महाराजा श्रेणिक के चले जाने के बाद अब उक्त मुनिराज की चर्या के विषय में कहते हैंइयरो विगुणसमिद्धो, तिगुत्तिगुत्तोतिदण्डविरओय। विहग इव विप्पमुक्को, विहरइ वसुहं विगयमोहो॥३०॥
त्ति बेमि। इति महानियण्ठिजं वीसइमं अज्झयणं समत्तं ॥२०॥