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उत्तराध्ययनसूत्रम्-
[विंशतितमाध्ययनम्
___ पदार्थान्वयः-चरित्तम्-चारित्र आयार-आचार और गुणनिए-गुणों से युक्त तओ-तदनन्तर अणुत्तरं-प्रधान संजम-संयम का पालिया णं-पालन करके निरासवे-आश्रव से रहित कम्म-कर्म को संखवियाण-क्षय करके उवेइ-प्राप्त होता है धुवे-निश्चल विउलुत्तमं-विस्तारयुक्त उत्तम ठाणं-स्थान को—मोक्ष को।
मूलार्थ—चारित्र और ज्ञानादि गुणों से युक्त होकर, तदनन्तर प्रधान संयम का पालन करके, आश्रव से रहित होता हुआ कर्मों का क्षय करके, विस्तीर्ण तथा सर्वोत्तम ध्रुवस्थान-मोक्षस्थान-को प्राप्त हो जाता है।
टीका-प्रस्तुत गाथा में महानिर्ग्रन्थों के मार्ग पर चलने का फल बतलाया गया है। अनाथी मुनि महाराजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन् ! जो पुरुष चारित्र, आचार और ज्ञानादि गुणों से युक्त होकर सम्यक् प्रकार से संयम का आराधन करता है, वह आश्रवरहित होकर कर्मों का क्षय करता हुआ सर्वप्रधान और ध्रुवमोक्षस्थान को प्राप्त होता है । मोक्षस्थान में प्राप्त हुआ जीव फिर इस संसार में आकर जन्म-मरण की परम्परा को प्राप्त नहीं होता, इसी भाव को व्यक्त करने के लिए ध्रुव पद पढ़ा गया है। अर्थात् मोक्षस्थान ध्रुव है, नित्य है। अतः जो लोग मुक्तात्मा का पुनरागमन मानते हैं, वे भ्रान्त हैं। ज्ञानयुक्त क्रिया से मोक्ष की प्राप्ति का वर्णन करना, केवल ज्ञान अथवा केवल क्रिया को मोक्ष का हेतु मानना युक्तियुक्त नहीं, यह ध्वनित करना है । प्रस्तुत गाथा में 'म' अलाक्षणिक है । मोक्ष का मुख्य हेतुभूत 'निराश्रव' पद है, क्योंकि जब तक यह आत्मा आश्रवों से रहित नहीं होता, तब तक मोक्षपद की प्राप्ति दुर्लभ ही नहीं, किंतु असम्भव है।
अब प्रस्तावित सन्दर्भ का उपसंहार करते हैं । यथाएवुग्गदन्ते वि महातवोधणे,
महामुणी महापइण्णे महायसे । महानियण्ठिजमिणं महासुयं,
से काहए महया वित्थरेणं ॥५३॥ .