________________
विंशतितमाध्ययनम् ] हिन्दी भाषाटीकासहितम् ।
[ ८७५
श्रेणिक ! मगधाधिप !
आत्मनाप्यनाथोऽसि आत्मनाऽनाथ
"
सन्, कथं नाथो भविष्यसि ॥१२॥
पदार्थान्वयः — सेणिया - हे श्रेणिक ! मगहाहिवा - हे मगधाधिप ! तू अप्पणा वि-आत्मा से भी अगाहो - अनाथ असि - है, सो अप्पणा - आत्मा से . अणाहो - अनाथ सन्तो - होने पर कहूं - कैसे नाहो - नाथ भविस्ससि - हो सकता है । मूलार्थ हे मगध देश के स्वामी श्रेणिक ! तुम आप ही अनाथ हो । अतः स्वयं अनाथ होने पर तुम दूसरे के नाथ किस प्रकार से हो सकते हो ?
टीका-महाराजा श्रेणिक ने उक्त मुनिराज से जब नाथ बनने को कहा, तब उसके उत्तर में वे कहने लगे कि हे श्रेणिक ! तुम जब कि स्वयं ही अनाथ हो तो दूसरे के नाथ बनने का कैसे साहस करते हो ? क्योंकि जो पुरुष स्वयं अनाथ है, वह दूसरों का नाथ कभी नहीं बन सकता । तात्पर्य यह है कि ईश्वर – ऐश्वर्यवान् पुरुष ही अनीश्वर – निर्धन को ईश्वर बना सकता है। किंवा पंडित पुरुष, मूर्ख को पंडित बनाने का साहस कर सकता है । परन्तु जो स्वयं निर्धन अथच मूर्ख है, वह दूसरे को ऐश्वर्यवान् अथच पंडित कभी नहीं बना सकता । मुनिराज के कथन का स्पष्ट भाव यही है कि जब तुम स्वयं ही अनाथ हो तो तुम मेरे नाथ कभी नहीं बन सकते । इसलिए तुम्हारा यह कथन केवल भ्रममूलक है 1
तदनन्तर
एवं वृत्तो नरिंदो सो, सुसंभंतो सुविम्हिओ । वयणं अस्सुयपुव्वं, साहुणा विम्हयन्नओ ॥१३॥
एवमुक्तो नरेन्द्रः सः, सुसंभ्रान्तः सुविस्मितः । वचनमश्रुतपूर्वं , साधुना विस्मयान्वितः ॥१३॥
पदार्थान्वयः — एवं - इस प्रकार कुत्तो कहा हुआ सो - वह नरिंदो - राजा सुसंतो -संभ्रान्त हुआ सुविहिओ - विस्मित हुआ वयणं - वचन अस्सुयपुव्वं - अश्रुतपूर्व — - प्रथम नहीं सुने हुए साहुणा - साधु के द्वारा विम्यन्नियो - विस्मय को प्राप्त हो गया ।