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________________ विंशतितमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [ ८७३ कि मेरा हित करने वाला इस प्रकार का कोई भी मित्र मुझे नहीं मिला, अतः मैं दीक्षित हो गया हूँ । मुन के उक्त कथन को सुनकर महाराजा श्रेणिक ने अपने मन में जो कुछ विचार किया और विचार करने के अनन्तर मुनिराज से जो कुछ कहा, अब उसका वर्णन करते हैं तओ सो पहसिओ राया, सेणिओ मगहाहिवो । एवं ते इड्डिमन्तस्स कहं नाहो न विजई ॥१०॥ ततः स प्रहसितो राजा, श्रेणिको मगधाधिपः । एवं ते ऋद्धिमतः, कथं नाथो न विद्यते ॥१०॥ पदार्थान्वयः—तओ—तदनन्तर सो - वह राया - राजा पहसिओ - हास्ययुक्त अथवा विस्मित हुआ सेंणिओ-श्रेणिक मगहाहिवो - मगध का अधिपति एवं - इस प्रकार इड्डिमन्तस्स-ऋद्धि वाले ते- आपका कहं- कैसे नाहो - - नाथ न विजई - नहीं है । मूलार्थ - तदनन्तरं प्रहसित अथवा विस्मित हुआ वह मगधनरेश महाराजा श्रेणिक मन में विचारने लगा कि इस प्रकार की ऋद्धि वाले आपका कोई नाथ कैसे नहीं है ? टीका - जिस समय व्यंग्यपूर्ण वचन से मुनि ने राजा के समक्ष अपने को अनाथ बतलाया, तब उसको और भी विस्मय हुआ और वह मन में विचार करने लगा कि यह मुनि कैसे अनाथ हो सकता है ? कारण कि अनाथता का यहाँ पर कोई भी चिह्न प्रतीत नहीं होता । तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार की इस सुनि को शारीरिक सम्पत्ति प्राप्त हो रही है तथा इसकी सौम्य मुद्रा, प्रसन्नवदन, विकसित नेत्र और उज्ज्वल वर्ण इत्यादि शुभ लक्षणों से प्रतीत होता है कि यह किसी उच्चकुल में उत्पन्न होने वाला भाग्यशाली जीव है, जो कि कदापि अनाथ नहीं हो सकता । 'यत्राकृतिस्तत्र गुणा वसन्ति' तथा - ' गुणवति धनं ततः श्रीः, श्रीमत्याशा ततो राज्यम्' इति हि लोकप्रवादः । राजा के इन मानसिक संकल्पों के लिए विस्मयसूचक 'प्रहसित' पद इसी उद्देश्य से उक्त गाथा में प्रयुक्त हुआ है। उक्त गाथा में तत्काल की अपेक्षा से ही वर्तमान क्रिया का प्रयोग किया गया है ।
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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