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एकोनविंशाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।।
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के दुःखों की खान है । तात्पर्य यह है कि इस संसार में जन्ममरणजन्य अनेकविध दुःखों को मैंने सहन किया है, जो कि अतीव भयानक हैं और जिनका इस समय पर भी मेरे को प्रत्यक्ष की भाँति अनुभव हो रहा है । अतः मुझे इन सांसारिक विषयभोगों से किसी प्रकार का भी अनुराग नहीं ।
उक्त गाथा में चारों गतियों को दुःखों की खान कहा है। अतः अब सब से पहले नरकगति के दुःखों का वर्णन करते हैं
जहा इहं अगणीउण्हो, इत्तोऽणंतगुणो तहिं । नरएसु वेयणा उण्हा, अस्साया वेइया मए ॥४८॥ यथेहाग्निरुष्णः , इतोऽनन्तगुणस्तत्र । नरकेषु वेदना उष्णाः , असाता वेदिता मया ॥४८॥ . पदार्थान्वयः-जहा-जैसे इहं-इस मनुष्यलोक में अगणी-अग्नि उन्होउष्ण है इत्तो-इस आग से अनंतगुणो-अनन्तगुण उण्हा-उष्ण है तहिं-वहाँ पर नरएसु-नरकों में वेयणा-वेदना अस्साया-असातारूप वेइया-अनुभव की मए-मैंने।
मूलार्थ-जैसे इस लोक में अग्नि का उष्ण स्पर्श अनुभव किया जाता है, उससे अनन्तगुणा अधिक उष्णता के स्पर्श का अनुभव वहाँ (अर्थात् नरकों में) होता है । अतः नरकों में मैंने इस असातारूप वेदना का खूब अनुभव किया है।
टीका-इस गाथा में पहले नरक की उष्ण वेदना का वर्णन किया गया है। जैसे इस लोक में प्रस्तर-पत्थर और लोहा आदि कठिन धातुओं को द्रवीभूत करने घाला तथा सन्ताप देने वाला अग्नि का उष्ण स्पर्श प्रत्यक्षरूप से अनुभव में आता है, ठीक इस अग्नि के उष्ण स्पर्श से अनन्तगुण अधिक उष्ण स्पर्श उन नरकादि स्थानों में है, जहाँ पर कि मैं उत्पन्न हो चुका हूँ। अतः नरकादि स्थानों की आसावारूप उष्ण वेदना को मैंने अनन्त वार अनुभव किया है । इसी हेतु से मैं इस संसार से. विरक्त हो रहा हूँ । यद्यपि वहाँ पर-नरक में-वादर-स्थूल अग्नि विद्यमान नहीं है तथापि वहाँ पृथिवी का स्पर्श ही उसके समान उष्ण है। [ 'वादरानेरभावात् पृथिव्या एव तादृशः स्पर्श इति गम्यते' ] अथवा वहाँ पर रहने वाले परमाधर्मी देवता