________________
अष्टादशाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[ ७५१
%3
राजा, इस अनन्तरोक्त पुण्य पद का श्रवण करके-जो कि अर्थ—स्वर्गादि और उसके उपायभूत धर्म से उपशोभित है [ ऐसे पुण्यपद को सुनकर ] परम रमणीय भारतवर्ष और कामभोगादि पदार्थों का परित्याग करके प्रव्रजित हो गये—दीक्षित हो गये । इसका परिणाम यह हुआ कि वह उसी भव में मोक्ष को प्राप्त हो गये
और उन्हीं के नाम से यह देश भारतवर्ष के नाम से प्रख्यात हुआ । यह सम्राट भगवान् श्री ऋषभदेव के पुत्र थे, इनकी दिग्विजय का सविस्तर वर्णन श्री जम्बूप्रज्ञप्ति सूत्र के भारतालापक प्रकरण में है । तथा उत्तराध्ययन की टीकाओं में से भी इसका सविस्तर वर्णन देख लेना चाहिए।
___ अब दूसरे चक्रवर्ती के विषय में कहते हैंसगरोऽवि सागरन्तं, भारहवासं नराहिवो । इस्सरियं केवलं हिच्चा, दयाए परिनिव्वुडे ॥३५॥ सगरोऽपि सागरान्तं, भारतवर्ष नराधिपः । ऐश्वर्यं केवलं त्यक्त्वा, दयया परिनिर्वृतः ॥३५॥
पदार्थान्वयः-सगरोऽवि-महाराज सगर भी सागरन्तं-समुद्रपर्यन्त इस्सरियं-ऐश्वर्य केवलं-सम्पूर्ण हिच्चा-छोड़कर दयाए-दया से परिनिव्वुडे-निर्वृति को प्राप्त हुआ नराहिवो-नरों का अधिपति । ___. ' मूलार्थ-महाराजा सगर भी भारतवर्ष के सागर पर्यन्त ऐश्वर्य का परित्याग करके, दया से, परम निवृत्तिरूप मोक्ष को प्राप्त हुए ।
टीका-इसी प्रकार सगर नाम के दूसरे चक्रवर्ती राजा भी सागर पर्यन्त पृथिवी—जो कि भारतवर्ष की तीन दिशाओं की सीमा है और चतुर्थी दिशा में चुल्ल (क्षुल्लक) हैमवन्त पर्बत है—के सम्पूर्ण ऐश्वर्य को छोड़कर संयमाराधन के द्वारा आठों कर्मों का क्षय करके मोक्ष को चले गए । कहते हैं कि इस सम्राट के ६० हजार पुत्र गंगा के लाने में संहार को प्राप्त हुए थे, उनके वियोग में उन्होंने संसार सागर से पार करने वाली जिन दीक्षा को ग्रहण किया जिसके प्रभाव से वह चारों कषायों का समूल घात करके परम कल्याणस्वरूप मोक्ष पद को प्राप्त हो गये । इस कथन से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि चक्रवर्ती पद को प्राप्त करने