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________________ अष्टादशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [ ७३१ फिर इस राज्य में तू क्यों आसक्त हो रहा है ? तात्पर्य कि यह सब कुछ यहाँ पर ही रह जाने की वस्तु है। इसमें से कोई भी पदार्थ तुम्हारे साथ जाने का नहीं और तुम भी सदा स्थिर नहीं रह सकते । इसलिए इन पदार्थों में आसक्ति को छोड़कर आत्मचिन्तन में प्रवृत्त होना ही तेरे लिए श्रेयस्कर है। इस प्रकार राज्य के त्याग का उपदेश करने के अनन्तर अब जीवलोक की अनित्यता का दिग्दर्शन कराते हैं जीवियं चेव रूवं च , विज्जुसंपायचंचलं। जत्थ तं मुझसी रायं ! पेच्चत्थं नावबुज्झसे ॥१३॥ जीवितं चैव रूपं च , विद्युत्सम्पातचञ्चलम् । यत्र त्वं मुह्यसि राजन् ! प्रेत्यार्थं नावबुध्यसे ॥१३॥ पदार्थान्वयः-जीवियं-लीवित च-समुच्चय में एव-पादपूर्ति में है चऔर रूवं-रूप विज्जुसंपाय-बिजली के चमत्कार के समान चंचलं-चंचल है जत्थ-जिसमें तं-तू मुझसी-मूर्छित हो रहा है रायं-हे राजन् ! पेच्चत्थं-परलोक के प्रयोजन को तू नावबुज्झसे नहीं जानता । मूलार्थ हे राजन् ! यह जीवन और रूप विद्युत्सम्पात के समान अति चंचल है ! जिसमें कि तू मूछित हो रहा है ! और परलोक का तुझको बोध नहीं है। टीका-संसार की अनित्यता को बतलाते हुए मुनि कहते हैं कि हे राजन् ! यह जीवन और रूप, जिसमें कि तू मूर्च्छित हो रहा है, बिजली के चमत्कार के समान अतिचंचल है अर्थात् इसमें स्थिरता बिलकुल नहीं । तब इसमें आसक्त होना कोई बुद्धिमत्ता का काम नहीं है। इसी हेतु से तू परलोक के प्रयोजन को भी नहीं समझता ? अर्थात् इन लौकिक विभूतियों को छोड़कर परलोक में गमन करने वाले जीव को किस वस्तु के संचय करने की आवश्यकता है, इस ओर तुम्हारा ध्यान नहीं है । यहाँ पर 'विद्युत्सम्पात' का जो दृष्टान्त दिया है, उसका तात्पर्य यह है कि जैसे बिजली का चमत्कार चंचल होने के साथ २ मनोहर है, उसी प्रकार यह जीवन
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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