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________________ बैठकर उसको भक्षण करे, इत्यादि नियमों की चर्चा उक्त गाथा में की गई है। संयमशील साधु को अपने समान आचार रखने वाले साधुओं के साथ एक स्थान में बैठकर भोजन करने की शास्त्र में आज्ञा दी गई है तथा पृथ्वी पर न गिरे इस प्रकार यतना से आहार करना चाहिए। जिस स्थान में आहार किया जाए, वह स्थान भी द्वीन्द्रिय आदि जीवों से रहित हो तथा धान्य आदि भी उसमें न उगे हुए हों। इसके अतिरिक्त वह स्थान ऊपर से ढका हुआ हो और चारों तरफ से दीवारों आदि से घिरा हुआ हो। तात्पर्य यह है कि आहार करने के लिए जो स्थान हो वह सब प्रकार से साफ और स्वच्छ हो तथा चारों ओर से घिरा हुआ और ऊपर से ढका हुआ होना चाहिए ताकि भोजन करते समय किसी आगन्तुक बुभुक्षित व्यक्ति की वहां पर दृष्टि न पड़े। साधु अकेला भी आहार न करे, ऐसा करने से साधु में स्वार्थ-वृत्ति की मात्रा के बढ़ने का भय रहता है। यत्न-पूर्वक आहार के करने से कीट-पतंग आदि सूक्ष्म जीवों की विराधना से बचना तो प्रत्यक्ष-सिद्ध है। इसलिए परिमार्जित और संवृतस्थान में सहचारी साधुओं के साथ यतना पूर्वक किया गया आहार संयमशील साधु के लिए निःसन्देह उसके सात्विक भाव की जागृति में सहायक होता है। - बहुत से साधकों का यह स्वभाव होता है कि वे भोजन करते समय अनेक प्रकार की इधर-उधर की बातों में प्रवृत्त हो जाते हैं, परन्तु उनका यह व्यवहार शास्त्र-सम्मत और साधुजनानुमोदित नहीं है, इसलिए विवेकशील पुरुष को भोजन के समय में अपनी वाणी को सर्वथा संयत रखना चाहिए। इसी विषय को अब और स्पष्ट रूप से प्रस्तुत किया जा रहा है सुक्कडित्ति सुपक्कित्ति, सुच्छिन्ने सुहडे मडे । सुणिट्ठिए सुलट्ठित्ति, सावज्जं वज्जए मुणी ॥३६॥ .. सुकृतमिति सुपक्वमिति, सुच्छिन्नं सुहृतं मृतम् । - सुनिष्ठितं सुलष्टमिति, सावधं वर्जयेन्मुनिः ॥ ३६ ॥ पदार्थान्वय:--सुक्कडिति—अच्छा किया, इस प्रकार का भाषण करना, सुपक्कित्ति—अच्छा पकाया हुआ है, इस प्रकार कहना, सुच्छिन्ने—अच्छा छेदन किया हुआ, सुहडे-अच्छा हरण किया है, मडे—अच्छा मरण हुआ, सुणिट्ठिए—अच्छा रस उत्पन्न हुआ, सुलट्ठित्ति—यह बहुत मनोहर है इस प्रकार के, सावज्ज–सावद्य—पापयुक्त वचनों को, मुणी—मुनि-साधु, वज्जए—छोड़ दे।। मूलार्थ भोजन करते समय व्रतशील साधु-अच्छा किया, अच्छा पकाया, अच्छा छेदन किया, अच्छा हुआ जो इसका कड़वापन हरा गया, अच्छा मर गया, इसमें अच्छा रस उत्पन्न हो गया, यह बहुत ही मनोहर है—इस प्रकार के सावद्य-पापयुक्त वचनों को त्याग दे। टीका—इस गाथा में साधु को भोजन करते समय व्यर्थ के वचनों और सावध वचनों के परित्याग का आदेश दिया गया है। यह भोजन बहुत अच्छा बना हुआ है, यह पदार्थ बहुत सुन्दर रीति . श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 91 /विणयसुयं पढमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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