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इसका अभिप्राय यह है कि साधु के लिए भिक्षा लेने और आहार करने में जिन काष्ठमय पात्रों का विधान शास्त्रकारों ने किया है उन्हीं में साधु भिक्षा ले सकता है और उन्हीं में आहार कर सकता है, परन्तु गृहस्थ के किसी पात्र में दिया हुआ आहार न तो वह ले सकता है और न उस पात्र में आहार कर सकता है। इसलिए साधु अपने ही पात्र में आहार-भिक्षान्न ग्रहण करे और उसी में भक्षण करे । अन्यमतावलम्बी साधुओं की तरह न तो गृहस्थ के घर में अथवा पात्र में उसे भिक्षा लेनी कल्पती है और न उसमें साधु को भक्षण करने की शास्त्र में आज्ञा है। इस प्रकार स्ववेष से ग्रहण किया हुआ आहार भी साधु को विधिपूर्वक ही भक्षण करना चाहिए एवं वह आहार भी गवेषणा-पूर्वक लाया हुआ होना चाहिए, अर्थात् किसी एक ही सद्गृहस्थ के घर से नहीं, किन्तु अनेक गृहस्थों के घरों से लाया हुआ हो। केवल एक ही घर से लाई हुई भिक्षा भी साधु के उपयोग में नहीं आ सकती, इसलिए साधु को अनेक घरों से ही थोड़ा-थोड़ा निर्दोष आहार लाने की शास्त्रों में आज्ञा दी गई है। .
शास्त्र-विहित मर्यादा के अनुसार भिक्षा लाकर उसको भक्षण करते समय प्रथम वह 'नमो अरिहंताणं' इत्यादि नमस्कारमंत्र का उच्चारण करे। फिर न तो अधिक शीघ्रता से ओर न अधिक मन्दता से उसका भक्षण करे, किन्तु काल की मर्यादा के अनुसार मध्यम-मार्ग का अनुसरण करता हुआ भक्षण करे और वह भी उस परिमाण तक भक्षण करे कि जिससे उसके स्वाध्याय और धर्मध्यान में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित न हो, अर्थात् वह मर्यादित भोजन ही ग्रहण करे।
इसके अतिरिक्त आहार की किसी प्रकार की प्रशंसा और निन्दा करने का भी साधु के लिए शास्त्रों में निषेध किया गया है। इसलिए आहार में किसी प्रकार के गुण-दोष की उद्भावना भी साधु को नहीं करना चाहिए। सारांश यह है कि विधिपूर्वक लाया हुआ और विधिपूर्वक भक्षण किया हुआ भिक्षान्न साधु-जीवन के निर्वाह में सहायक बनता हुआ किसी प्रकार के पाप-कर्म के बन्ध का कारण नहीं बनता। अब शास्त्रकार इसी विषय में कुछ और ज्ञातव्य बातों का उल्लेख करते हुए कहते हैं
नाइदूरमणासन्ने, नन्नेसिं चक्खुफासओ । एगो चिट्ठज्ज भत्तट्ठा, लंघित्ता तं नइक्कमे ॥ ३३ ॥ नातिदूरमनासन्नः, नान्येषां चक्षुस्पर्शतः . ।
एकस्तिष्ठेद् भक्तार्थं, लवयित्वा तं नातिक्रमेत् || ३३ ॥ पदार्थान्वयः-नाइदूरं—न अति दूर मे, अणासन्ने—न अति समीप में, नन्नेसिं—न औरों के, चक्खुफासओ-चक्षु-स्पर्श में, भत्तट्ठा—आहार के लिए, एगो—अकेला, चिद्वेज्जा—खड़ा होवे, लंघित्ता–उल्लंघन करके, तं—उस अन्य भिक्षु को, न इक्कमे घर में न जाए।
मूलार्थ यदि घर में पहले किसी अन्य भिक्षु ने प्रवेश किया हुआ हो तो साधु उस भिक्षु के न तो अति दूर में और न अति समीप में तथा न उसके नेत्रों के सामने ही खड़ा हो और उसको उल्लंघन करके भी घर में न जाए।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 88 / विणयसुयं पढमं अज्झयणं