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मनोनिग्रह के बिना आत्मसुख की बात तो दूर रही संसार का भी कोई पूर्ण सुख इस जीव को प्राप्त नहीं हो सकता, क्योंकि अदान्तात्मा इन्द्रियों के वशीभूत होने से सदा पराधीनता की बेड़ियों से जकड़ा ही रहता है। इसलिए उसके सुख-साधन भी परिणाम में दुःख के हेतु बन जाते हैं, अतः इन्द्रियों के वश में होना दुःख है, अथवा पराधीनता है और उनको अपने वश में करना सुख और स्वाधीनता है। यद्यपि आत्मा के सर्व प्रकार के 'अभ्युदय मन्दिर' की आधार-शिला इन्द्रिय-दमन अथवा मनोनिग्रह ही है, तथापि इन्द्रियों अथवा मन का दमन करना कोई साधारण सी बात नहीं है। इसके समान दुःसाध्य कार्य लोक में दूसरा कोई नहीं है। वे महापुरुष धन्य हैं जिन्होंने अपने मन तथा इन्द्रियों को वश में कर रखा है। आत्म-निग्रह जैसे दुष्कर कार्य की सिद्धि करने वाला सहस्रों व्यक्तियों में कोई विरला ही महानुभाव निकलता है। इसलिए सर्वतोभावेन आत्म-दमन की ओर ही विनीत शिष्य की प्रवृत्ति होनी चाहिए। इसी में उसका कल्याण निहित है।
यहां पर इतना और समझ लेना चाहिए कि गाथा में ‘' शब्द ‘एवं' के अर्थ में और ‘खलु' अव्यय हेत्वर्थक है।
आत्म-दमन का उपायअब आत्म-दमन में मुमुक्षु पुरुष की क्या भावना होनी चाहिए इस विषय को प्रदर्शित करते हैं
वरं मे अप्पा दन्तो, संजमेण तवेण य । माऽहं परेहिं दम्मंतो, बंधणेहिं वहेहिं य ॥ १६ ॥
वरं मयात्मा दान्तः, संयमेन तपसा च ।,
____ माऽहं परैर्दमितः, बन्धनैर्वधैश्च ॥ १६ ॥ . पदार्थान्वयः—वरं अच्छा हुआ, मे—मैंने, संजमेण–संयम से, य—और, तवेण तप से, अप्पा दंतो—आत्मा का दमन किया है, अहं—मुझे, परेहिं—औरों के द्वारा, बंधणेहिं—बन्धनों, य—और, वहेहिं—वधों से, दमंतो—दमन करवाना, मा—मत हो।।
मूलार्थ—अच्छा हुआ जो कि मैंने संयम और तप के द्वारा स्वयं ही अपनी आत्मा का दमन कर लिया है, वध और बन्धनों के द्वारा औरों से आत्म-दमन करवाना मुझे उचित नहीं है।
टीका—इस गाथा में जो कुछ लिखा गया है उसका भाव यह है कि द्वादश विध तप और पंचविध आश्रव-निरोध रूप संयम के अनुष्ठान से जो आत्म-निग्रह (मन और इन्द्रियों पर पूरा नियन्त्रण करना) किया गया है, वही सच्चा आत्म-दमन है और इसी से आध्यात्मिक शान्ति की प्राप्ति हो सकती है, क्योंकि इससे मन और इन्द्रियों की स्वच्छन्दता सर्वथा नष्ट हो जाती है। मन और इन्द्रियां विनीत अनचरों की भांति संयमी आत्मा की आज्ञा के विरुद्ध जरा भी इधर-उधर नहीं होने पातीं। संयमी पुरुष का मन रासायनिक विधि के द्वारा पक्ष-छेदन किए हुए पारद की तरह अपनी
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 74 / विणयसुयं पढमं अज्झयणं