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________________ पदार्थान्धयः-अणासवा—वचन के न मानने वाले, थूलवया—बिना विचारे बोलने वाले, कुसीला—कुत्सित ·आचार वाले, सीसा शिष्य, मिउंपि—कोमल स्वभाव वाले गुरु को भी, चंडं—क्रोधी, पकरंति—बना देते हैं। गुरु के, चित्ताणुया—चित्त के अनुसार चलने वाले, लहु-शीघ्र कार्य करने वाले, दक्ख—चतुर, उववेया—गुणों से युक्त, पसायए–प्रसन्न करते हैं, ते वे शिष्य, हु-फिर, दुरासयंपि—अति क्रोधी गुरु को भी। मूलार्थ-गुरु के वचनों को न मानने वाले, बिना विचारे बोलने वाले, खोटे आचार वाले कुशिष्य कोमल स्वभाव वाले गुरु को भी क्रोधी बना देते हैं और जो गुरु के चित्त के अनुसार चलने वाले, शीघ्र कार्य करने वाले चतुर शिष्य हैं वे क्रोधी गुरु को भी प्रसन्न कर लेते हैं। टीका—इस गाथा में अविनीत और विनयशील शिष्य के आचरणों का गुरुजनों के चित्त पर जो प्रभाव पड़ता है उसी का दिग्दर्शन कराया गया है। जिनकी गुरुओं के वचनों पर आस्था नहीं है और जो बिना विचार किए बोलते हैं तथा कुत्सितं आचरण रखते हैं, ऐसे कुशिष्य भद्र प्रकृति वाले गुरुजनों को भी क्रोध करने के लिए विवश कर देते हैं, क्योंकि बिना विचार किए बोलने वाले और बार-बार मना करने पर भी अपनी कुप्रवृत्तियों को न बदलने वाले शिष्य के प्रतिकूल व्यवहार को देखकर शान्त गुरु को भी क्रोध आ जाना कुछ आश्चर्य की बात नहीं है। इसके विपरीत गुरुजनों की इच्छानुसार आचरण करने वाले, उनके वचनों पर आस्था रखने वाले, उनके इशारे पर ही अविलम्ब रूप से कार्य करने वाले परम चतुर शिष्य कठिन प्रकृति वाले क्रोधी गुरु को भी सरल और शान्त बना देने में सिद्धहस्त होते हैं। बडी कठिनता से क्रोध का त्याग करने वाले गरु को सरल और शान्त बना देने में ही विनीत शिष्य की योग्यता का अधिक महत्त्व है। इस सारे कथन का तात्पर्य यह है कि शिष्य के आचरणों का अच्छा या बुरा प्रभाव गुरुजनों के चित्त पर अवश्य पड़ता है। इसके अतिरिक्त इस गाथा के भाव का बारहवीं गाथा से भी मेल खाता है। जैसे दुष्ट घोड़ा अपनी कुचेष्टाओं से स्वामी के शान्त स्वभाव में भी विकृति पैदा करके उसे अशान्त बना देता है, इसी प्रकार अयोग्य शिष्य के प्रतिकूल व्यवहार से सदा शान्त रहने वाले गुरुजन भी क्रोध में आकर अशान्त बन जाने के लिए विवश हो जाते हैं तथा चतुर और विनीत शिष्य विनीत घोड़े की तरह अपने गुरुजनों को लुभाते हैं, अर्थात् जैसे सुशील घोड़ा अपने स्वामी के कठिन हृदय को भी अपने भद्र आचरण से अपनी ओर खींच लेता है, इसी प्रकार बुद्धिमान् शिष्य भी अपने कठोर हृदयी गुरु के चित्त में बैठकर उसे सदा के लिए सरल और शान्त बना देता है। शास्त्रकारों का विनीत शिष्य के लिए यह उपदेश है कि वह अपने गुरुजनों के चित्त को सदा प्रसन्न रखने का प्रयत्न करे, अपनी सम्पूर्ण चर्या को वह गुरु के चित्त के अनुकूल रखे और भूलकर भी वह ऐसा कोई प्रतिकूल आचरण न करे, जिससे कि गुरुजनों के अन्तःकरण में किसी प्रकार का आघात पहुंचे। इसी में उसके शिष्यभाव की सार्थकता है। विनीत शिष्य के विशुद्ध आचरणों का | श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 71 / विणयसुयं पढमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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