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________________ 'आहच्च चण्डालियं कटु, न निण्हविज्ज कयाइवि । कंडं कडे त्ति भासेज्जा, अकडं नो कडे त्ति य ॥११॥ आहत्य चण्डालीकं कृत्वा, न निन्हुवीत कदापि च | कृतं कृतमिति भाषेत, अकृतं नो कृतमिति च ॥ ११ ॥ पदार्थान्वयः-आहच्च कदाचित्, चंडालियं कटु-क्रोध के वशीभूत होकर असत्य बोल दे उसे, न निण्हविज्ज—न छिपावे, कयाइवि—कदाचित् भी, कडं—किए हुए को, कडे—किया है, त्ति—इस प्रकार, य– और, अकडं नहीं किये हुए को, नो—नहीं, कडे-किया है, त्ति-इस प्रकार, भासेज्जा–भाषण करे। ___मूलार्थ कदाचित् क्रोध के वशीभूत होकर शिष्य ने असत्य भाषण कर दिया हो तो गुरुजनों के पूछने पर उसे कदाचित् भी छिपाए नहीं, किया हो तो कह दे कि मैंने किया है और यदि न किया हो तो कह दे कि मैंने नहीं किया है। टीका—क्रोध, लोभादि के वशीभूत होकर कदाचित् असत्य भाषण का हो जाना कोई अस्वाभाविक बात नहीं है, ऐसा प्रायः हो ही जाता है, क्योंकि विवेकी पुरुष भी कभी क्रोध अथवा लोभादि के वश में आकर झूठ बोलने के लिए बाध्य हो जाता है, परन्तु ऐसा होने पर भी विनीत शिष्य का यह कर्त्तव्य है कि वह उसे छिपाने की कोशिश कदापि न करे, गुरुजनों द्वारा पूछने अथवा न पूछने पर तथा किसी अन्य व्यक्ति के देखने अथवा न देखने पर भी वह उसे गुप्त न रखे। यदि उसने असत्य भाषण किया है तो स्पष्ट शब्दों में कह दे कि मैंने किया है और यदि उसने असत्य न बोला हो तो कह दे कि मैंने असत्य नहीं बोला है। तात्पर्य यह है कि किसी भी समय क्रोधादि कषायों के वश में हो जाने पर भी शिष्य अपनी सत्यनिष्ठा से न गिरे। इसी आचरण में उसके आत्मिक सद्गुणों का उज्ज्वल विकास है। इसके विपरीत जो व्यक्ति अपने से होने वाले असद् भाषण को लज्जा, भय आदि के कारण छिपाने का प्रयत्न करता है वह तो मायावी बनकर अपनी आत्मा को और भी अधिक कलुषित करता है। इसलिए वही साधक शूरवीर है जो कि किसी बलवान् निमित्त से हो जाने वाले अपने अपराध की स्वीकृति में जरा भी संकोच नहीं करता, यही इस गाथा का तात्पर्य है। गुरुजनों के उपदेशानुसार शिष्य की प्रवृत्ति और निवृत्ति किस प्रकार से होनी चाहिए, अब इस बात का वर्णन नीचे की गाथा में किया जाता है मा गलियस्सेव कसं, वयणमिच्छे पुणो पुणो । - कसं व दट्ठमाइण्णे, पावगं परिवज्जए ॥ १२ ॥ मा गलिताश्व इव कशं, वचनमिच्छेत् पुनः पुनः | कशमिव दृष्ट्वाऽऽकीर्णः, पापकं परिवर्जयेत् ॥१२॥ श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 69 / विणयसुयं पढमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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