________________
पूर्व संस्करण से
शुभ स्मृति
इस विस्तृत आगम के प्रकाशन के समय सहसा मुझे चार स्वर्गीय महान् आत्माओं की शुभ स्मृति हो रही है। इन पुनीत आत्माओं के पवित्र नाम क्रमशः इस प्रकार हैं—परम पूज्य आचार्य श्री मोतीराम जी महाराज, पूज्यवर्य आचार्य श्री सोहनलाल जी महाराज, पूजनीय स्थविरपदविभूषित गणावच्छेदक श्री गणपतिराय जी महाराज एवं मेरे अन्तेवासी स्व० पण्डितवर्य मुनि श्री ज्ञानचन्द्र जी म०।
आचार्य श्री मोतीराम जी महाराज में हृदय की सरलता और शुद्धता, वाणी की मितता और मधुरता, अध्ययन और अध्यापन आदि में सतत संलग्नता, शान्ति, सहिष्णुता और सद्गुणों की विशेषता थी। यह महात्मा परम गम्भीर थे। इनमें आचार्य के सब विशेष गुण विद्यमान थे। इन्होंने आचार्य के कर्तव्यों को अच्छी तरह से निभाया। इनके समकालीन श्रीसंघ में पूर्ण शान्ति और उत्तम व्यवस्था रही। जैनागमों की आरम्भिक शिक्षा मैंने इन्हीं से प्राप्त की थी, अतः इस प्रसिद्ध सूत्र के प्रकाशन के अवसर पर इन आचार्य-चरणों का पुण्य स्मरण करना नितान्त आवश्यक है।
आचार्य श्री सोहनलाल जी महाराज इनके उत्तराधिकारी थे। यह महात्मा परम तपस्वी और तेजस्वी थे। इनमें हृदय की दृढ़ता और आत्म-बल की विशेषता थी। इन्होंने आत्मबल के द्वारा पंजाब देश में जैन धर्म का खूब प्रचार किया था। इनका आचार, तप और त्याग प्रशंसनीय है। ___ श्री स्वामी गणपतिराय जी महाराज की सेवा का मुझे प्रभूत सुअवसर प्राप्त हुआ। मेरे अध्ययन और लेखनादि कार्य में इनकी सहायता सब से अधिक रही। मेरे ऊपर इनकी सदैव कृपा-दृष्टि रही। यह महात्मा सौम्य मूर्ति थे। इनका हृदय गम्भीर और उन्नत विचारों से परिपूर्ण था। इन्होंने अन्त तक मनसा, वाचा, कर्मणा संयम का निर्दोष एवं निरतिचार पालन किया। इनकी अन्तिम घड़ियों की शान्ति, समाधि और तेजस्विता का दृश्य अवर्णनीय है। मारणान्तिक वेदना की आकुलता के स्थान पर इनके आनन पर अद्भुत मुस्कराहट और अभूतपूर्व तेजस्विता दिखाई देती थी। इस शुभ अवसर पर ऐसी पुण्यात्मा की शुभ स्मृति का होना स्वाभाविक ही है। ___ स्व० पं० मुनि श्री ज्ञानचन्द्र जी अद्भुत प्रतिभावान थे। इनकी स्मरण-शक्ति आश्चर्यजनक थी। केवल पांच वर्षों में ही इन्होंने व्याकरण, साहित्य और आगमों का पर्याप्त ज्ञान प्राप्त कर लिया था। इनका पाण्डित्य प्रगाढ़ था। यह मेरे परम सहायक और प्रिय शिष्य थे। इन्होंने स्वयं भी कतिपय पुस्तकों की रचना की और मुझे भी लेखन-कार्य के लिए प्रेरणा देते रहते थे। इस शास्त्र की विद्वन्मान्य
और लोकोपयोगी टीका लिखने की इन्होंने ही मुझे विशेष रूप से प्रेरणा दी थी। अतः इस सूत्र के प्रकाशन के समय इनकी मधुर-स्मृति का होना भी अनिवार्य है।
—उपाध्याय आत्माराम
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 48 । शुभ स्मृति