SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ करना चाहिए, किन्तु काल में ही स्वाध्याय करना चाहिए। यदि परस्पर वाचना चलती हो तो वाचना की क्रिया कर सकते हैं, अर्थात् वाचना अकाल में भी दे - ले सकते हैं और यदि अपने शरीर से 'रुधिर बहता हो, तब भी स्वाध्याय नहीं कर सकते, परन्तु उस स्थान को ठीक प्रकार बांधकर यदि खून आदि बाहर न बहतें हों तो परस्पर वाचना दे ले सकते हैं । इस प्रकार शुद्धिपूर्वक स्वाध्याय करने में प्रयत्नशील होना चाहिए । अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि — अस्वाध्याय मूल सूत्र का होता है या अनुप्रेक्षादि का भी ? इसका उत्तर यही है कि— ठाणांग सूत्र के वृत्तिकार अभयदेव सूरि चार महाप्रतिपदाओं की वृत्ति कर समय प्रथम ही यह लिखते हैं :– “स्वाध्यायो नन्द्यादि सूत्रविषयो वाचनादिः, अनुप्रेक्षा तु न निषिध्यते" इस कथन से सिद्ध हुआ कि केवल संहिता - मात्र का अस्वाध्याय है, अनुप्रेक्षा आदि का नहीं । अस्वाध्याय काल में स्वाध्याय करने से हानि अस्वाध्याय काल में स्वाध्याय करने से यही हानि है कि-शास्त्र के देवाधिष्ठित एवं देववाणी होने के कारण अशुद्धि-पूर्वक पढ़ने से कोई क्षुद्र देव पढ़ने वाले को छल ले या उसे दुःख दे देवे ! ( एतेषु स्वाध्याय कुर्वतां क्षुद्रदेवता छलनं करोति इति वृत्तिकारः) जिससे कि लोगों में अत्यन्त अपवाद हो जाने की सम्भावना रहती है तथा आत्म-विराधना और संयम - विराधना के होने की भी सम्भावना की जा सकती है। अथवा — - सुयणाणंमि अभत्ती, लोगविरुद्धं पमत्त-छंलणा य । विज्जासाहण - वेगुन्न – धम्मया एव मा कुणसु ॥ १ ॥ — श्रुतज्ञानेऽभक्तिः, लोकविरुद्धता प्रमत्तछलना च । विद्यासाधनवैगुण्यधर्मता इति मा कुरु ॥ १ ॥ अर्थात्–विद्या-साधन में असफलता इत्यादि कारण जानकर हे शिष्य ! अकाल में स्वाध्याय न करना चाहिए। अतएव सिद्ध हुआ कि अकाल में स्वाध्याय न करना चाहिए। जैसे जो वृक्ष अपनी ऋतु आने पर ही फलते और फूलते हैं वे जनता में समाधि के उत्पन्न करने वाले माने जाते हैं, किन्तु जो वृक्ष अकाल में फलते और फूलते हैं वे देश में दुर्भिक्ष, मरी और राज्य - विग्रह ( कलह ) आदि के उत्पन्न करने वाले माने गए हैं। इसी प्रकार स्वाध्याय के काल - अकाल के विषय में भी जानना चाहिए। कारण यह है कि प्रत्येक कार्य विधि-पूर्वक किया हुआ ही सफल होता है। जैसे समय पर सेवन की हुई औषधि रोग की निवृत्ति और बल की वृद्धि करती है, ठीक इसी प्रकार भक्ति-पूर्वक और स्वाध्याय-काल में ही किया हुआ स्वाध्याय कर्मक्षय और शान्ति की प्राप्ति कराता है । अत:“उद्देसो पासगस्स नत्थि’” इस वाक्य को स्मरण कर इस विषय को यहीं पर समाप्त किया जाता है, अर्थात् बुद्धिमान् को श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 46 / स्वाध्याय
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy