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________________ टीका—मुनि हरिकेशबल कहते हैं कि तुम लोग शुद्धि के बहाने पापकर्म का उपार्जन कर रहे हो। जैसे कि यज्ञ के लिए कुशा लाते हो, यूप-यज्ञस्तम्भ का निर्माण करते हो, हवन के लिए वीरणादि तृण और समिधाएं इकट्ठी करके उनका अग्नि में होम करते हो, तथा प्रातः-सायं जल का सेवन करते हो, अर्थात् शुद्धि के निमित्त जल का स्पर्श करते हो, इन सब कार्यों के पीछे पाप का कुछ न कुछ अंश विद्यमान रहता है। तात्पर्य यह है कि इस प्रकार की क्रियाओं द्वारा प्राणियों और भूतों का विनाश करते हुए पापकर्म का ही संचय होता है, परन्तु तुम लोग इन उक्त क्रियाओं को शुद्धि का कारण मान रहे हो यही तुम्हारी अज्ञानता है, क्योंकि स्नानादि क्रियाएं व्यवहार-पक्ष में केवल शरीर की शुद्धि का ही कारण मानी जाती हैं, आत्म-शुद्धि में तो इनका कोई उपयोग नहीं है। यही उक्त गाथा का रहस्य है। अपि च 'प्राणाः द्वित्रिचतुः प्रोक्ताः, भूतास्तु तरवः स्मृताः । जीवाः पञ्चेन्द्रिया ज्ञेया, शेषाः सत्त्वाः प्रकीर्तिताः॥१॥' . इत्यादि प्रमाणों से तुम्हारे यज्ञारम्भ में नाना प्रकार के जीवों का प्रत्यक्ष विनाश हो रहा है तथा उदकादि से होने वाले मात्र बाह्य शौच से ही आन्तरिक-आध्यात्मिक शौच की अभिलाषा रखना तुम्हारी भारी भूल है, क्योंकि आपको यथार्थ बोध नहीं है। __मुनि के इस प्रकार के कथन को सुनकर वे ब्राह्मण लोग अपनी-अपनी शंकाओं की निवृत्ति . करने के लिए उक्त मुनि से यज्ञ विषयक इस प्रकार से प्रश्न करने लगे, यथा कहं चरे! भिक्खु! वयं जयामो? पावाइं कम्माइं पुणोल्लयामो? अक्खाहि णे संजय! जक्खपूइया! कहं सुइ8 कुसला वयंति? ॥४०॥ कथं चरामो? भिक्षो! वयं यजामः? पापानि कर्माणि प्राणोदयामः ? | आख्याहि नः संयत! यक्षपूजित! कथं स्विष्टं कुशला वदन्ति? || ४०॥ पदार्थान्वयः-भिक्खु हे भिक्षो!, वयं हम, कहं—किस प्रकारं, चरे—आचरण करें, जयामो–यज्ञ करें, पावाइं—पाप, कम्माइं—कर्म, पुणोल्लयामो—जिससे दूर हो जाएं, अक्खाहिकहो, णे हमको, संजय हे संयत! जक्खपूइया हे यक्षपूजित! कहं-किस प्रकार, सुइटुं—अतिश्रेष्ठ यज्ञ, कुसला कुशल पुरुष, वयंति—कहते हैं। ___ मूलार्थ हे भिक्षो! हम किस प्रकार का यज्ञ करें जिसके करने से पाप-कर्म दूर हो जाएं, सो हमारे प्रति आप कहें, हे संयत! हे यक्षपूजित! कुशल पुरुष किस को स्विष्ट अर्थात् अतिश्रेष्ठ यज्ञ कहते हैं? टीका—इस गाथा में यज्ञ के वास्तविक स्वरूप को समझने के लिए ब्राह्मणों ने मुनि से प्रश्न किया है। वे कहते हैं कि पाप कर्मों को दूर करने के लिए किस प्रकार के यज्ञ का आरम्भ करना चाहिए? क्योंकि प्रस्तुत यज्ञ को तो आपने हिंसात्मक होने से पाप का कारण बताया है, इसलिए ऐसा श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 438 / हरिएसिज्जं बारहं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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