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साक्षात् खलु दृश्यते तपोविशेषः, न दृश्यते जातिविशेषः कोऽपि । श्वपाकपुत्रं हरिकेशसाधुं यस्येदृशी ऋद्धिर्महानुभागा ॥ ३७ ॥
पदार्थान्वयः – खु– निश्चय ही, सक्खं साक्षात्, तवो— तप की, विसेसो- विशेषता, दीसई — देखी जाती है— किन्तु, जाइविसेस — जाति की विशेषता, कोई — थोड़ी सी भी, न दीसई—नहीं दिखाई देती, देखो, सोवागपुत्तं - चांडाल के पुत्र, हरिएस - हरिकेश, साहु– साधु को, जस्स – जिसकी, एरिसा — इस प्रकार की, इड्ढि — ऋद्धि और, महाणुभागा - महाभाग्य है ।
मूलार्थ - निश्चय ही तप की विशेषता तो यह प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो रही है और जाति की विशेषता तो थोड़ी सी भी नहीं दिखाई देती । देखो! इस चाण्डाल - पुत्र हरिकेश साधु को कि जिसकी इस प्रकार की ऋद्धि और भाग्य है ।
टीका — मुनि के तपोबल की प्रत्यक्ष महिमा को देखकर आश्चर्य - मग्न हुए वे अध्यापक आपस में इस प्रकार कहने लगे कि 'वास्तव में तप का ही प्रभाव प्रत्यक्ष है, अर्थात् इसी की विशिष्टता संसार में दृष्टिगोचर होती है और जाति का वैशिष्ट्य तो प्रायः विश्वास- गम्य ही है, अर्थात् प्रत्यक्षरूप में उसका कोई भी प्रभाव देखने में नहीं आता । यदि वस्तुतः जाति का कोई विशिष्ट महत्त्व होता तो देवता गण ब्राह्मण के अतिरिक्त और किसी के भी अनुचर न बनते, परन्तु देखने में इससे सर्वथा विपरीत दृष्टि- गोचर हो रहा है, देखो यह हरिकेशबल नाम का साधु कितने हीन कुल व हीन जाति में उत्पन्न हुआ है, परन्तु इसका तपोबल इतना महान् है कि उसके प्रभाव से मनुष्य तो क्या, देवता भी इसकी सेवा में उपस्थित होने में अपना परम सौभाग्य समझते हैं, इससे प्रतीत होता है कि केवल जाति में कोई महिमा की बात नहीं, वह तो आत्म शुद्धि और उसके साधनभूत विशेष प्रकार के तप में ही है । इसलिए बुद्धिमान् पुरुषों को चाहिए कि वे केवल जाति के अभिमान में फंसे न रहकर अपने आत्मा में गुणोत्कर्ष के सम्पादनार्थ अधिक से अधिक प्रयत्न करें, यही इस गाथा का आशय है।'
इसके अनन्तर मुनि हरिकेशबल ने उन अध्यापकों को विनीतं और उपशान्त मोह वाले जानकर जो हितकारी उपदेश दिया अब शास्त्रकार उसका वर्णन करते हैं—
किं माहणा! जोइसमारभत्ता, उदएण सोहिं बहिया विमग्गहा ? | जं मग्गहा बाहिरियं विसोहिं, न तं सुइट्ठे कुसला वयन्ति ॥ ३८ ॥ किं ब्राह्मणा ! ज्योतिः समारभमाणाः, उदकेन शुद्धिं बाह्यां विमार्गयथ ? | यद् मार्गयथ बाह्यां विशुद्धिं न तत् सुदृष्टं कुशला वदन्ति ॥ ३८ ॥ पदार्थान्वयः—–किं—–क्या, माहणा— हे ब्राह्मणो! जोइ – अग्नि का, समारभंता — समारम्भ करते हुए और, उदएण —– जल से, सोहिं -शुद्धि, बहिया — बाहर की, विमग्गहा —– अन्वेषण करते हो, जं— जो, मग्गहा – अन्वेषण करते हो, बाहिरियं— बाहर, विसोहि — विशुद्धि का मार्ग, तं वह मार्ग, श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 436 / हरिएसिज्जं बारहं अज्झयणं