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________________ तपोऽनुष्ठानविधिं कृत्वा एतान् उत्तराध्यायान् सूत्रार्थतो लभेत्, पश्चात् गुरुमुखात् सूत्रार्थं लब्ध्वापरं भाषेत स क्षीणकर्मा भवतीत्यर्थं ॥ १ ॥ स मनुष्यो भव्यो मुक्तिगामी इति लक्ष्यते । पूर्वर्षयः पूर्वाचार्या एवं भाषन्ते । स इति कः यस्य पुरुषस्य विघ्नरहितस्य निर्विघ्नस्य सतः कथमपि यलेनापि एते उत्तराध्यायाः आढत्ता पठनाय आरब्धाः सन्तः समाप्यन्ते सम्पूर्णा भवन्ति, स भव्यो भाग्यवान् ज्ञेय इत्यर्थः । भाग्यवतः पुरुषस्यैव निर्विघ्नम् एते अध्यायाः सम्पूर्णा भवन्ति । यतः “ श्रेयांसि बहुविघ्नानि भवन्ति महतामपि" इत्युक्तेः ॥ २ ॥ भावार्थ — वह भव्य जन बहुत से कर्मों की निर्जरा कर देता है जो उपधान- तपोऽनुष्ठान द्वारा विधि-पूर्वक उत्तराध्ययन के सूत्र ओर उसके अर्थ को प्राप्त करता है । इतना ही नहीं, किन्तु गुरुमुख सूत्र और अर्थ को प्राप्त करके उसका अन्य जीवों के कल्याणार्थ उपदेश करता है, वह क्षीण कर्म वाला होता है ॥ १ ॥ पूर्वाचार्य कहते हैं कि जिन आत्माओं का आरम्भ किया हुआ उत्तराध्ययन निर्विघ्नता से समाप्त हो जाता है वे आत्माएं भव्य अर्थात मोक्षगामी हैं । कारण कि शुभ कार्य में अनेक प्रकार के विघ्न उपस्थित हो जाते हैं। इन दोनों गाथाओं में उत्तराध्ययन की फलश्रुति का वर्णन किया गया है। इसके अध्ययन और उपदेश का फल कर्मों की निर्जरा है, अर्थात् विधि-पूर्वक गुरुमुख से पढ़ने तथा पढ़कर उसका उपदेश करने से पूर्व संचित कर्मों का क्षय हो जाता है । इसलिए दूसरी गाथा में इनकी निर्विघ्न समाप्ति को पुरुष का अहोभाग्य बताया गया है। अतः उत्तराध्ययन का विधि-पूर्वक पठन-पाठन साक्षात् वा परम्परया मोक्ष का निदान है, यह बात उपरोक्त कथनं से भली-भांति प्रमाणित हो जाती है । श्रुत (प्रवचन) प्रभावना शास्त्रकारों ने जीवन के भी कल्याणार्थ दस साधन बताए हैं, उनमें से एक साधन प्रवचन - प्रभावना भी है । यथा दसहिं ठाणेहिं जीवा आगमेसिं भद्दत्ताए कम्मं पगरेंति । जहा— (१) अणिदाणताते, (२) दिट्ठिसंपन्नताते, (३) जोगवाहियत्ताते, (४) खंतिखमणताते, (५) जितिंदियताते, (६) अमाइल्लताते, (७) अपासत्थताते, (८) सुसामण्णतांते, (६) पवयणवच्छलताते (१०) पवयण- उब्भावणताते । भावार्थ — निम्नलिखित दस स्थानों से यह जीव भविष्यत् काल में कल्याणप्रद कर्मों का बन्ध करता है । यथा (१) अणिदाणताते (अनिदानतया ) — अनिदानता से, निदान कर्म – सकाम कर्म के त्याग से जिनके द्वारा आनन्द रसोपेत मोक्ष फल के देने वाली ज्ञानादि की आराधना रूप लता लौकिक अभ्युदय श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 36 / प्रस्तावना
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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