SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 325
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जो–जो, मग्गे—मार्ग में, घरं—घर, कुणई करता है, जत्थेव-जहां पर, गन्तुं—जाने की, इच्छेज्जा—इच्छा करे, तत्थ—वहां-उसी स्थान पर, सासयं—अपना (शाश्वत) आश्रय, कुव्वेज्ज–बनाए। मूलार्थ जो पुरुष संशययुक्त होता है वही मार्ग में घर बनाता है, अतः जहां पर जाने की इच्छा हो वहीं पर अपने आश्रय के लिए घर बनाए। ___टीका राजर्षि नमि देवेन्द्र से कहते हैं कि जिस पुरुष को अपने जाने में सन्देह है, अर्थात् जो यह समझता है कि मैंने सदैव इसी संसार में ही रहना है, वही व्यक्ति मार्ग में प्रासाद घर आदि का निर्माण करता है और जिसको अपने जाने का निश्चय हो चुका हो, अर्थात् जिसने मरकर संसार को छोड़ने का निश्चित ज्ञान प्राप्त कर लिया हो वह पुरुष अपने आश्रय के लिए यहां पर घर नहीं बनाता है। मुझे तो अपने जाने में किसी प्रकार का सन्देह नहीं रहा, अर्थात् मुझे तो इस बात का पूर्ण निश्चय हो चुका है कि मैंने अवश्य जाना है तो फिर मुझे इस मार्ग-स्थान में घर बनाने की क्या आवश्यकता है? मुझे तो जिस स्थान पर जाना है, अपने आश्रय के लिए मैं तो उसी स्थान में पहुंचकर घर बनाऊंगा। ___ तात्पर्य यह है कि मैंने तो मुक्ति-धाम में जाना है, इसलिए वहीं पर अपना नूतन घर बनाने की मेरी इच्छा है, क्योंकि वही शाश्वत स्थान है। नमि राजर्षि इन्द्र से कहते हैं कि मैं तो इस स्थान को संसार को गमन का मार्ग मात्र समझता हूं और जो मार्ग में घर बनाने की चेष्टा करता है वह बुद्धिमान नहीं कहा जा सकता, इसलिए मुझे इस स्थान पर घर बनाने की आवश्यकता नहीं है। एयमढें निसामित्ता, हेउ-कारण-चोइओ · । तओ नमिं रायरिसिं, देविन्दो इणमब्बवी ॥ २७ ॥ एनमर्थं निशम्य, हेतु-कारण-नोदितः । । . ततो नमि राजर्षि देवेन्द्र इदमब्रवीत् || २७ || , (शब्दार्थ पूर्ववत्) मूलार्थ इस पूर्वोक्त विचार को सुनकर और नवीन हेतु और कारण से प्रेरित होकर इन्द्र फिर नमि राजर्षि से कहते हैं टीका—उक्त गाथा आगामी प्रश्न का उपक्रम मात्र है, अतः विशेष व्याख्या की आवश्यकता नहीं है। इन्द्र कहता है आमोसे लोमहारे य, गंठिभेए य तक्करे । नगरस्स खेमं काऊणं, तओ गच्छसि खत्तिया! ॥२८॥ श्री उत्तराध्ययन सत्रम / 322 / णवम नमिपवज्जाणामज्झयण
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy