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________________ द्वारा ज्ञान की प्राप्ति हो, उस क्रिया-विशेष को विद्वान् अध्ययन कहते हैं। अपिच साधु पौरुषी आदि विशिष्ट क्रिया-कलापों के द्वारा मोक्ष प्राप्ति के लिए यत्न करने वाला जीव जिस अनुष्ठान विशेष के द्वारा शीघ्र ही मोक्ष पथ का पथिक बन सके, उसका नाम अध्ययन है। यहां पर अधिपूर्वक इङ् धातु से निष्पन्न हुए अध्ययन शब्द की चर्चा की गई है। सारांश यह कि उपर्युक्त भिन्न-भिन्न प्रकार से की जाने वाली निरुक्तियों से उत्तराध्ययन सूत्र की विशिष्टता ध्वनित करना ही नियुक्तिकार का अभिमत है, ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है जो कि सुसंगत एवं समुचित ही है। रचनाविषयक मतभेद प्रस्तुत सूत्र की रचना के विषय में कुछ मतभेद देखने में आता है। नियुक्तिकार तो इसके कतिपय अध्यायों को दृष्टिवादांग से उद्धृत किया हुआ मानते हैं। कितने एक स्थलों को जिन-भाषित कहते हैं और कितने एक प्रत्येक बुद्धादि रचित एवं अन्य स्थविरादि के द्वारा कहे गए स्वीकार करते हैं।' चूर्णीकार श्री जिनदास गणि महत्तर और बृहद्वृत्तिकार वादिवैताल श्री शांतिसूरि जी ने भी नियुक्ति के इसी विचार को मान्य रखा है। तात्पर्य यह है कि इन दोनों विद्वानों ने उत्तराध्ययन की रचना को नियुक्ति के लेखानुसार ही स्वीकार किया है। परन्तु उत्तराध्ययन सूत्र के छत्तीसवें अध्ययन की अन्तिम गाथा और श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के निर्वाण-सम्बन्धी कल्पसूत्र के पाठ को देखते हुए नियुक्तिकार का उक्त कथन कुछ विचार की अपेक्षा रखता है। उत्तराध्ययन सूत्र की अन्तिम गाथा में लिखा है कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने उत्तराध्ययन के ३६ अध्ययनों को प्रकट करने .. (१) अंगप्पभा जिणभासिया य, पत्तेयबुद्धसंवाया। बंधे मुक्खे य कया, छत्तीसं उत्तरज्झयणा || (नियुक्ति गाथा ४) छाया- अंगप्रभवाणि जिनभाषितानि च प्रत्येकबद्धसंवादानि । बन्धे मोक्षे च कृतानि षटत्रिंशत् उत्तराध्ययनानि ।। २: एयाणि पुण उत्तरज्झयणाणि कओ केण वा भासियाणीति ? उच्यते "अंगप्पभा"। तत्थ अंगप्पभवा जहा परीसहा बारसमाओ अंगाओ कम्मप्पवायपुवाओ णिज्जूढा, जिणभासिया जहा दुमपत्तगादि, पत्तेयबुद्धभासियाणि जहा काविलिज्जादि, संवाओ जहा णमिपव्वज्जा केसिगोयमेज्जं च, तं एते सव्वेव बंधप्पमोक्खत्थं छत्तीसं उत्तरज्झयणा कया। (चूर्णी पृ०७) ३. "अंगप्पभवा जिणभासिया" इत्यादि का नियुक्ति की गाथा की व्याख्या के रूप में उल्लेख किया गया ब्रहवृत्ति का पाठ इस प्रकार है-अंगाद् दृष्टिवादादेः प्रभवः-उत्पत्तिरेषामिति अंगप्रभवानि, यथा परीषहाध्ययनम् । वक्ष्यति हि-"कम्मप्पवायपुव्वे सत्तरसे पाहुडंमि जं सुत्तं। सनयं सोदाहरणं तं चेव इहंपि णायव्वं" | जिनभाषितानि, यथा द्रुमपुष्पिकाऽध्ययनं, तद्धि समुत्पन्नकेवलेन भगवता महावीरेण प्रणीतम् । यद्वक्ष्यति—“तं णिस्साए भगवं सीसाणं देइ अणुसळिंत्ति, च. समुच्चये, प्रत्येकबुद्धाश्च संवादश्च प्रत्येकबुद्धसंवादं तस्मादुत्पन्नानि इति शेषः, तत्र प्रत्येकबुद्धाः कपिलादयः; तेभ्य उत्पन्नानि यथा कापिलीयाध्ययनम् । वक्ष्यति हि-"धम्मट्ठयागीयं" तत्र हि कपिलेनेति प्रक्रमः । संवादः- संगतप्रश्नोत्तरवचनरूपस्ततः उत्पन्नानि, यथा केशिगौतमीयः वक्ष्यति च-“गोयमकेसीओ य संवायसमुट्ठियं जम्हेयमित्यादि.....................(अध्य० १ नियुक्ति गाथा ४ की व्याख्या) श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 17 । प्रस्तावना
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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