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अर्थात् गुरुजनों के शासन से आत्मा में ग्लानि लाता हुआ 'इससे तो मर जाना ही अच्छा है', इस प्रकार का अनिष्ट विचार न करे तथा क्रोध के वशीभूत होकर गुरुजनों के घात का भी मन में संकल्प न करे तथा उनके छिद्रों का अन्वेषण भी न करे। इसका तात्पर्य यह है कि बहुत से बुद्धिहीन शिष्य गुरुजनों की शिक्षा से चिढ़कर उनके घात करने के कुविचार तक मन में लाने लगते हैं। उनकी दुर्भावनाओं में यह समाया हुआ होता है कि अच्छा हो यदि ये मर जाएं, नहीं तो जब तक ये जीवित रहेंगे तब तक इसी प्रकार की अंट-संट शिक्षा देते रहेंगे। इनके मर जाने से 'न होगा बांस न बजेगी बांसुरी' वाली कहावत चरितार्थ हो जाएगी।
छिद्रान्वेषण भी क्रोध की ही एक अवान्तर शाखा प्रतिशाखा है। गुरुजनों पर असद्भाव रखने वाले अविनीत शिष्य उनकी शिक्षा का उनसे बदला लेने के विचार से उनके किसी ने किसी छिद्र अर्थात् दोष एवं कमी की तलाश में रहते हैं। उनके मन में रात-दिन यही दुर्भावना चक्कर काटती रहती है कि इनकी भी अगर मुझे गुप्त कमजोरी मिल जाए तो मैं भी जनता में इनका भांडा फोड़ करके ही दम लूं, ताकि आगे को इन्हें किसी प्रकार की शिक्षा करने का साहस न हो सके। ____ इस सारे कथन का वास्तविक अभिप्राय यह है कि विनीत शिष्य को इस प्रकार के अनाचरणीय विचारों और आचारों को किसी समय में भी अपने पुनीत हृदय में स्थान न देना चाहिए। बुद्धिमान् शिष्य के आचार-विनय की शोभा तो इसी में है कि वह अपने गुरुजनों को किसी समय भी अप्रसन्न न होने दे, इसी में उसके आत्म-ज्ञान की उज्ज्वलता और समाहित-दृष्टि का विकास निहित है। .. अब गुरुजनों की प्रसन्नता के लिए विनीत शिष्य का जो कर्त्तव्य है उसका उल्लेख करते हैं।
आयरियं कुवियं नच्चा, पत्तिएण पसायए । - विज्झवेज्ज पंजलीउडो, वएज्ज न पुणुत्ति य ॥ ४१॥
आचार्यं कुपितं ज्ञात्वा, प्रातिकेन' प्रसादयेत् ।
विध्यापयेत् प्राञ्जलिपुटः वदेन्न पुनरिति च || ४१ ॥ पदार्थान्वयः-आयरियं—आचार्य को, कुवियं-कुपित हुआ, नच्चा-जानकर, पत्तिएणप्रत्ययकारी विश्वास योग्य वचनों से, पसायए—प्रसन्न करे और, पंजलीउडो हाथ जोड़कर, विज्झवेज्ज—उनकी क्रोध रूप अग्नि को उपशान्त करे, य—और, वएज्ज–कहे, न पुणुत्ति—फिर इस प्रकार न करूंगा।
मूलार्थ—आचार्य महाराज को कुपित हुआ जानकर विनीत शिष्य प्रतीतिकारक अर्थात् विश्वास-योग्य वचनों से उन्हें प्रसन्न करे और उनकी क्रोध रूप अग्नि-ज्वाला को शीतल वचनों से शान्त करे तथा दोनों हाथ जोड़कर कहे कि 'मैं फिर भविष्य में ऐसा कभी न करूंगा।'
१. प्रीत्या इत्यपि छाया ग्रन्थान्तरे।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 97 /विणयसुयं पढमं अज्झयणं