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नववैराग्यशतक.
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व्याख्या-हा इतिखेदे रे जीव! जिनधर्म तुं पाम्यो बतां ते प्रमादना दोषेकरी तें आचस्यो नही. तो तेणे करी हे जीव, तुं पोतेज पोताना यात्मानो वैरी समान थयो. तो धागल जतां तुं परवश थको घणां कुःख सोशीश; ने पश्चाताप करीशमा टेप्रमाद करीश नही. अप्रमादपणे धर्मकर॥५३॥जेए जिनधर्म संपादन कस्यो नही, अर्थात् जिनधर्म पामीने तेनुंथाचरण कयूं नही, पनी बापडा सोचना-पश्चात्तापक रे, ते रांक बने प्रमादी जीव वेडे मरण पावे थके उतावलमा केशोचना करे,अने कोने कहे? एवा पापकर्मी जीवो प्रमाद वशे रह्याथका अंत समये सोचना करे. ५४ धीधी धी संसारे, देवो मरिऊण जं तिरी होइ॥ मरिऊण रायराया परिपञ्चश्नरय जालाए॥५५॥जा अणाहो जीवो, उमस्स पुप्फ व कम्मवाय दनाधण धन्ना दरणाई, वर सयण कुटुंब मिल्लेवि ॥५६॥ व्याख्या-धिक्क धिक्क धिक्क! या संसारनेविषे धिक्कार, जे संसारमांहे देवो स रखा उत्तम जीव मरीने वली तिर्यचनी गतिनेविष उत्पन्न थायडे, अने राजाउनो राजा,जेने शोज हजार यदो सेवा करे, एवो चक्रवर्ति पण नरकनी अग्निज्वालामां हे घणुं पचाए , तो विशेषेकरीने ए उपरांत वैराग्यनुं बीजुं कयुं ठेकाणुं ने वारु ? ॥ ५५ ॥ जाय परलोकनेविषे अनाथ अशरण जीव, उमस्स के वृदनां पुष्प नीपरे जेम वायरे प्रेझुं फूल अनाथ थाय ले, तेम जीव कर्मरूपी वायरे प्रेस्यो थ को हणायले. एटले धन धान्य, बानरण अने, घर सऊन कुटुंब परिवार ए सदुप डतां मेलोने जीव बापडो कर्मनो प्रेयो एकलो जाय .॥५६॥
वसियं गिरीसवसियं, दरी सुवासियं समुह मनंमि ॥रुकग्गे सव सिअं, संसारे संसरतेणं ॥५॥देवोनेरश्नत्तिय, कीड पयं गतिमा पसोएसो॥रूवस्सीय विरूवो, सुदनागी उरकनागीय ॥५॥ व्याख्या-ए जीव आ संसारनेविषे संसृति के जन्म मरण, तेणे करीने अने क वार गिरिके० पर्वतनेविषे वस्यो, दरी के पर्वतनी गुंफानेविषे अनेकवार वस्यो, समुहममि के समुइनेविषे अनेकवखत वस्यो, अने रुखग्गे के वृदना अग्र जागे घणा वखत वस्यो. एम संसारमांहे आवागमन करतो वस्यो ॥ ५७ ॥ व ली ए जीव क्यारेक देवता थयो, क्यारेक नरकनेविषे वस्यो, क्यारेक कीट भयो, क्यारेक पतंग थयो, क्यारेक मनुष्यनो अवतार धस्यो. वली ए जीव, क्यारेक रू
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