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धरती और मार्ग की श्रावश्यकता होती है, उसकी प्राप्ति हरिभद्र के पश्चात् हुई । सशक्त रूप से कथा ने कला का रूप इस लम्बी अवधि में ग्रहण किया । वस्तु श्रौर रूप के सामंजस्य पूर्ण विधान में कथा को अपनी निष्ठा व्यक्त करने का जो अवसर हरिभद्र के युग में मिला था, कला के रूप में उसकी तद्गत परिणति हुई और हरिभद्र कालीन कथा साहित्य के विस्तार और संभार में। अपने सहज श्रात्मबोध में प्राणबोध और सन्तुलित शक्ति का संवर्धन इसी काल में हुआ ।
कथा या अन्य किसी भी साहित्यिक विधा में कला की चेतना का विन्यास तब होता है, जब वह विधा प्रपनी स्वतंत्र सत्ता का बोध करती हैं और तदनुरूप मानदंडों का विकास करती है । इस अर्थ में कला का निरूपण अपनी एक अपेक्षा रखता है, और वह अपेक्षा यह है कि कला का स्वरूप ग्रहण करने के लिए किसी भी साहित्यिक विधा में मात्र इतिवृत्त और स्थूलदृष्टि ही नहीं रहे, बल्कि उसमें सूक्ष्मता, सजगता, सामंजस्य, कल्पना, प्रभाव, तत्त्व और विचार की दृष्टियां भी विकसित हों । कथा को विशेषतः कला का रूप ग्रहण करने के लिए यह श्रावश्यक है कि वह अव्यक्त रूप से प्रभावान्विति या एकता लाने का प्रयास करे । यतः इसी प्रभाव पर उसका सब कुछ, जैसे कथानक, उद्देश्य, चरित्र, दर्शन, सौंदर्य आदि सब कुछ निर्भर करता है । इस युग के प्राकृत कथा साहित्य में प्रभाव की एकता लाने का प्रयास हम यहीं देख पाते हैं। यह एकता तब आ सकी है, जब कथा को स्पष्टतः कई वर्गों में विभक्त कर लिखा गया है । इस युग में प्राकृत कथाएं मुख्यतः चार श्रेणियों में लिखी गई हैं:
१ - - उपदेश की पुष्टि और स्पष्टी के लिए उपदेश देकर कथा कहना ।
२ - - प्रख्यायिका - - कथानक प्रधान, कथा के पश्चात् उपदेश को व्यंजित या अनुमित करना |
३ -- धार्मिक उपन्यास -- प्रेम कथा को प्रवान्तर कथा के जाल में बांध कर नायक-नायिका का मिलन, सुखमय जीवन और अन्त में उनका जैनधर्म में प्रवेश दिखाना ।
४ -- चरित - महापुरुषों की जीवनगाथा को ऐतिह ्य और कल्पना से रंग कर उपस्थित करना । पौराणिक तथ्यों के साथ शीलगठन के तत्त्वों का विश्लेषण एवं मानव और मानवेतर प्रकृतियों के कलात्मक विवेचन ।
इन चारों श्रेणियों की कथाओं के लिए स्थापत्य के विविध मानदंड बन, निश्चित रूपरेखाएं प्रतिष्ठित हुई । मिले-जुले और गोलमटोल प्रकार या श्रेणियों के दायरे से कथा की परिधि सिमट गई और निर्धारित परिधान में आबद्ध हो गई । कथाकार के लिए यह आवश्यक हो गया कि जब वह कथा लिखने बैठता तो उसे इस बात का ध्यान रखना पड़ता कि वह जो कथा लिख रहा है, वह उपदेश पुष्टि प्रधान कथा है या आख्यायिका अथवा उपन्यास या चरित। इस सतर्कता का फल यह हुआ कि कथाएं अपनी-अपनी श्रेणी में प्रभावान्विति बनाए रखने में समर्थ हुई ।
यों तो हरिभद्र के युग में भी प्राकृत कथाएं अलंकृत शैली में निबद्ध की गई। कला की अनेक सूक्ष्मता और विशेषताएं इन कथाओं में संबद्ध थीं । परन्तु इस युग की कथा में व विध्य नहीं आ पाया था । कला का पूर्णतः सन्निवेश यहां हुआ । हरिभद्र ने जिस स्वस्थ कथा परम्परा को प्रवाहित किया, उसकी गति उत्तरोत्तर बढ़ती गई । उद्योतन सरि जैसे कलाकार ने हरिभद्र का पूर्ण अनुकरण किया तथा इस विधा को पूर्णता प्रदान की ।
इस युग की कथा की एक अन्य प्रवृत्ति है, तत्त्व प्रधानता । कथा में तत्त्व प्रतिष्ठा का अर्थ है वर्णित कथावस्तु की विशेष प्रकृति और उस प्रकृति की पूर्ण अभिव्यक्ति । जिस प्रेमाख्यान परम्परा का आरम्भ तरंगवती में हुआ, और जिसके विकास में हरिभद्र और
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