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(१३) कथावस्तु में रोचकता, संभाव्यता और मौलिकता इन तीनों गुणों का यथेष्ट रूप में संयोजन |
(१४) दुहरे कथानकों के संयोग द्वारा कथा के मूलभाव का सम्प्रसारण ।
(१५) समवाही कथानकों के साथ क्रमबद्ध कथानकों की योजना ।
(१६) संवादों की सरस और स्वाभाविक योजना द्वारा कथानक विन्यास की पटुता ।
(१७) वार्त्तालाप द्वारा घटनाओं की गतिशीलता ।
(१८) आदर्श और यथार्थ का संघर्ष और अन्त में आदर्श की प्रतिष्ठा ।
( १९ ) कथा का आरम्भ, संवाद क्रिया या घटना द्वारा विकासोन्मुख होना । (२०) शील की महत्ता ।
(२१) निम्न और मध्यम श्रेणी के पात्रों के शील का उदात्तीकरण ।
(२२) आठवीं शताब्दी में प्रचलित रीति-रिवाज और सांस्कृतिक अंगों का विश्लेषण |
(२३) क्रोध, मान, माया और लोभ के परिमार्जन द्वारा स्वस्थ प्राध्यात्मिक जीवन की प्रतिष्ठा ।
(२४) उपदेश या सिद्धान्त के साथ मनोरंजन का संयोजन ।
(२५) लक्ष्य की दृष्टि से आद्यन्त एकरूपता ।
(२६) पूर्व दीप्ति प्रणाली द्वारा जन्म-जन्मान्तरों की घटनाओं के स्मरण से पात्रों को आत्मकल्याण की प्रेरणा ।
(२७) हृदय को स्पर्श करने की क्षमता । मानसिक तृप्ति के साथ कथाएं हृदय पर भी प्रभाव डालने वाली हैं ।
( २८ ) सूक्ति और लोकोक्तियों के द्वारा भाषा की सजीवता ।
(२९) भाषा में देशी शब्दों का समुचित प्रयोग ।
(३०) जैनधर्म के सिद्धान्तों के साथ शाक्तमत और भूत चैतन्यवाद के सिद्धान्तों का विनियोजन ।
(३१) समाज, दर्शन और साहित्य के अनेक रूपों की व्याख्या तथा समाज को सम्बन्ध में इनकी अपनी मान्यताएं ।
इस प्रकार हरिभद्र ने कथावस्तु, कथानक योजना, चरित्र श्रवतारणा, परिवेश नियोजन, संवादों की सरसता और स्वाभाविकता, जीवन दर्शन एवं संस्कृति विश्लेषण आदि सभी बृष्टियों से सफल और सुन्दर कथाएं लिखी हैं । दर्शन के समान इनके कथा ग्रन्थों में भी समाज - शास्त्र और मनोविज्ञान के सुन्दर सिद्धान्तों का समावेश हुआ है ।
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