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कलाओं में प्रवीणता प्राप्त करते थे। हरिभद्र ने शिक्षा के अन्तर्गत निम्न विषय और कलाओं को परिगणित किया है :-- (१) लेख--सुन्दर और स्पष्ट लिपि लिखना तथा स्पष्ट रूप से अपने भाव और
_ विचारों की अभिव्यंजना लेखन द्वारा करना। (२) गणित--अंकगणित, बीजगणित और रेखागणित का परिज्ञान। (३) आलेख्य--इसके अन्तर्गत धूलिचित्र, सादृश्यचित्र और रसचित्र ये तीनों
प्रकार के चित्र आ जात थे। राजकुमारों को आलेख्य का परिज्ञान
अनिवार्य समझा जाता था। (४) नाट्य--नाटक लिखने और खलने की कला। इस कला में सुर, ताल
आदि की गति के अनुसार अनेक विध नृत्य के प्रकार सिखलाये जाते हैं। (५) गीत--किस समय कौन-सा स्वर आलापना चाहिये ? अमुक स्वर को
अमुक समय पर आलापने से क्या प्रभाव पड़ता है ? इन समस्त
विषयों की जानकारी इसमें परिगणित हैं। (६) वादित्र--इस कला में संगीत के स्वरभेद और ताल आदि के अनुसार के
वाद्य बजाना सिखलाया जाता है । (७) स्वरगत--षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद का
परिज्ञान। (८) पुष्करगत--बांसुरी और भेरी आदि को अनेक प्रकार से बजाने की कला । (९) समताल--वाद्यों के स्वरानुसार हाथ या पैरों की गति को साधना । (१०) द्यूत--जूआ खेलने की कला को सीखना। यह मनोविनोद का एक साधन .
था, अतः इसकी गणना कलाओं के अन्तर्गत होती थी। (११) जनवाद--मनुष्य के शरीर, रहन-सहन, बात-चीत, खान-पान आदि के
द्वारा उसका परीक्षण करना कि यह किस प्रकृति का है और किस पद
या किस काम के लिए उपयुक्त हैं। (१२) होरा--जातक शास्त्र अर्थात् जन्मपत्री का निर्माण और फलादेश । (१३) काव्य--काव्यरचना तथा पुरातन काव्यों का अवगाहन करना। (१४) दकमातिकम्--इस कला में भूमि की प्रकृति का परिज्ञान किया जाता है ।
किस भूमि में कौन-सी वस्तु उत्पन्न हो सकती है ? कहां वक्ष और लताएं लगायी जा सकती हैं, आदि का परिज्ञान। इस कला को कृषि-कर्म कला कहा जा सकता है। खाद तथा मिट्टी के गुणों की
यथार्थ जानकारी इसमें अभीष्ट थी। (१५) अट्ठावय--अर्थपद-अर्थशास्त्र की जानकारी। इसके अन्तर्गत रत्नपरीक्षा
और धातुवादकला ये दोनों ही आ जाती हैं। (१६) अन्नविधि--भोजन निर्माण करने की कला की जानकारी। (१७) पानविधि--पेय पदार्थ निर्माण करने की कला की जानकारी। (१८) शयनविधि--शय्या निर्माण तथा शयन संबंधी अन्य आवश्यक बातों की
जानकारी इसमें सम्मिलित थी।
१--लेहं गणियं आले क्खं नहं गीयं वाहयं सरगयं पुक्खरगयं समतालं जूयं होराकर्व
दगमट्टियं--सउणसयं चेति, स० पृ० ७३४ अष्टम भव ।
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