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________________ पत्नी -- पत्नी का शाब्दिक अर्थ गृहस्वामिनी होता है । दम्पति की कल्पना में पति-पत्नी दोनों गृह के संयुक्त और समान रूप से अधिकारी होते हैं । श्वसुर के ऊपर साम्राज्ञी हो, देवर के ऊपर साम्राज्ञी हो । यह वैदिक काल का आदर्श हरिभद्र के समय तक चला आ रहा था । घर में बहू की स्थिति का एक स्पष्ट चित्र हरिभद्र के उस स्थल पर मिलता है, जब गुणचन्द्र शत्रु राजा को परास्त करने जाता है और वानमन्तर उसकी मृत्यु का मिथ्या समाचार नगर में प्रचलित कर देता है । बहू अपने ससुर को बुलाकर अग्नि में प्रविष्ट हो जाना चाहती हैं, किन्तु ससुर बहू को समझाता हुआ कहता है कि आप धैर्य रखें। मैं पवनगति ले खवाहक को भेजकर युद्धस्थल से कुमार का कुशल समाचार मंगाता हूँ। पांच दिनों में समाचार श्रा जायगा, श्राप समाचार प्राप्त होने पर जैसा चाहें वैसा करें। शांति कर्म और अनुष्ठान कर्म आदि के करने - कराने की उसे पूरी स्वतंत्रता प्राप्त थी । इस सन्दर्भ से स्पष्ट ज्ञात होता है कि बहू की स्थिति घर में श्राज से कहीं अच्छी थी । ३७८ सास बहू के बीच भी मधुर और स्नेह का सम्बन्ध था । पत्नी पति के बिना एक क्षण भी नहीं रहना चाहती थी । हरिभद्र ने धन की विदेश यात्रा के समय धनश्री के स्पष्ट पूर्ण निवेदन और सास द्वारा उसे साथ ले जाने के समर्थन से इस स्थिति का स्पष्ट चित्र उपस्थित किया है । उदार विचार के पति अपनी पत्नी के अनेक अपराधों को भी क्षमा करते थे । हरिभद्र के पात्रों में ऐसे भी पात्र हैं, जो पत्नी के शील को अधिक महत्व देते थे । पत्नी के शील पर शंका होने पर उसका त्याग भी कर देते थे तथा द्वितीय विवाह कर लेते थे । पर इतना स्पष्ट है कि यह सब अपवाद मार्ग था। पति-पत्नी के शारीरिक, आर्थिक र भौतिक स्वार्थ और आदर्श एक थे, दोनों का अभिन्न सम्बन्ध था । कुलटा पलियों के चित्र भी हरिभद्र ने उपस्थित किये हैं । धनश्री और लक्ष्मी ऐसी ही धोखे वाली पत्नियां हैं, जो अपने पतियों को नाना प्रकार के छल-कपटों द्वारा कष्ट देती हैं। समाज में ऐसी पत्नियां भी अपवाद रूप में ही पायी जाती हैं । पत्नी पति के साथ दूध पानी की तरह मिश्रित रहती थी। पति की सदा मंगल कामना करती थी । पति के न रहने पर अपना भी अन्त कर देती थी । नव बधू का स्वागत घर में खूब होता था । पुत्र के विवाह के पश्चात् दान देने की परम्परा भी इस बात पर प्रकाश डालती है कि नव बधू की प्राप्ति से परिवार बहुत सन्तुष्ट होता था । माता -- स्त्री के अनेक रूपों में मातृरूप सबसे अधिक प्रादरणीय और महत्त्व का माना जाता था । वास्तव में माता होने में ही स्त्री जीवन की सार्थकता निहित है । वन्ध्या अपुत्रा या मृत पुत्रा होना स्त्री के लिए कलंक है। माता होने के साथ ही स्त्री का घर स्थान और मूल्य दोनों बहुत बढ़ जाते हैं । प्राचीन धर्मशास्त्रियों ने भी माता की महत्ता बतलायी हैं । गौतम धर्मसूत्र में बताया है कि "गुरुयों में प्राचार्य श्रेष्ठ हैं, कई एक के मत १ - - सम्राज्ञी श्वसुरे भव सम्राज्ञी श्रधिदेवेषु -- ऋग् १०, ८५,४६। -- समागमो राया, बाहोल्लालोयणं चलणेषु निवडिऊणविन्नतोरयणवईए । स०, पृ० ८१४ । ३- वाहजलभरिलोयणाए सदुवखमिव भणियं धणसिरीए - - प्रज्जउत्त, हिययसन्निहियागुरू । जइ पुण तुमं मं उज्झिऊण गच्छहिसि श्रणुसासिश्रो य तीए बहुविहं - वही, पृ० २४१ । ४- स०, पृ० ६२३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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