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सेनापति सेना का प्रधान होता था, किन्तु युद्ध के अवसर पर राजा स्वयं ही सेनापति का कार्य करता था। विद्याधर कुमार बाण वर्षा द्वारा युद्ध करते थे और भूमिगोचरी राजकुमार खड्ग, कुन्तल, त्रिशूल और भिण्डिमाल द्वारा। युद्ध के अवसर पर अपने सहायक या अधीनस्थ राजाओं और सामन्तों को बुला लिया जाता था। हरिभद्र ने स्कन्धावार का भी उल्लेख किया है । इसमें गजशाला और मन्दुरा--घोड़े और ऊंटों के रहने का स्थान होता था। रथ और पैदल सेना का भी निवास इसीमें रहता था। स्कन्धावार आजकल की छावनी के समान रहता था।
अन्तःपुर, राजप्रासाद और आस्थानमण्डप राजा का अन्तःपुर बहुत विशाल और रम्य होता था। यह राजप्रासाद का वह भाग था, जहां रानियों का निवास रहता था। राजा का शयनगृह भी अन्तःपुर में होता था। हरिभद्र ने वर्णन करते हुए लिखा है कि चन्द्रमा की चन्द्रिका समान श्वेत, मणि और रत्नों के मंगलदीपों से युक्त शयनगृह था । इसके फर्श पर सुगन्धित पुष्प विकीर्ण थे, निर्मल मणियों की कांति पर कस्तूरी का लेप किया गया था। स्वर्ण स्तम्भों को देवदृष्य वस्त्रों से आच्छादित किया गया था। उज्ज्वल और विचित्र वस्त्रों के वितान बनाये गये थे। श्रेष्ठ मंगानों के लालवर्ण के पलंग थे, इन पर रूई के गद्दे बिछ थे। श्रेष्ठ के मनोहर पात्र बनाये गये थे। वासगृह में सुन्दर और सुगन्धित मालाएं लटक रही थीं, स्वर्णघंटों से सुगन्धित. धूप का धुआं निकल रहा था। इसमें चटुल हंस और पारावत क्रीड़ा कर रहे थे। ताम्बूलों में कर बीटिकाएं लगाकर सुगन्धि की वृद्धि की गयी थी। खिड़कियों में विलेपन को सुगन्धित सामग्री रखी थी। स्वर्ण के प्यालों में सुगन्धित वारुणी भरी गई थी। ___इन भवनों की दीवाले पारदर्शी होती थीं, जिससे नायिकाओं के विकार भाव देखने से सखियां हंसती थीं। उत्तुंगतोरण, स्तम्भों पर झलती शालभंजिकाएं अपना मनोरम दृश्य उपस्थित करती थीं। सुन्दर गवाक्ष और वेदिकाएं थीं। दीवालों में मणियां जटित थीं।
शयन गहों में सुगन्धित पुष्पों की अधिकता के कारण भ्रमर गुंजार कर रहे थे। उनके गुंजन की मधुर ध्वनि संगीत का सृजन करती थी। चम्पक मालाएं अपनी निराली छटा दिखलाती थीं। सुगन्धित चूर्णो की गन्ध उड़ रही थी। जो गद्दे बिछाये गये थे 4 खरगोश के चमड़े के समान अत्यन्त मृदुल थे। शयनगृह का वातावरण बहुत ही रमणीक और प्रानन्दवर्धक था। स्निग्ध फर्श सुगन्धित चूर्ण के संयोग से और अधिक स्निग्ध एवं प्रामोदमय प्रतीत होते थे। शयनगृह की भित्तिकाओं से चमकती हुई बहमल्य मणियां झिलमिल करने वाले दीपकों को भी तिरस्कृत करती थीं।
शयनकक्ष के पहले प्रास्थानमण्डप होता था। महा-प्रास्थानमण्डप को बाह्य प्रास्थानमण्डप भी कहा गया है । इस भाग को प्रास्थान, राजसभा या केवल सभा भी कहा जाता था। इसे ही मुगल-महलों में दर्बार-ग्राम कहा गया है । प्रास्थानमण्डप के सामने कुछ खुला भाग भी रहता था। राजा प्रास्थानमण्डप में ही राजकार्य करता था।
१--स०, पृ० ३१६ । २-वही, पृ० २६१-२६२ । ३--वही पृ० ५४८-५४६ । ४--स०, पृ० ६०१ । ५--वही, पृ० २६१ । ६--वही, पु. ४५ ।
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