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________________ प्राचार, एक-पर-एक सजीव क्रममुक्त, सम्बद्ध इन कथाओं की स्थापत्य योजना है, जिसमें कथा संघटन के आधारभूत तत्त्वों का प्रारम्भिक स्वरूप स्पष्ट होता है । जातीय संस्कृति के आधार पर चरित्रों के व्यक्तित्व का संगठन, उनका नियमन इस विशिष्टता से इन कथाओं में हुआ है कि चरित्र का निश्चयात्मक प्रभाव अन्ततः पड़ ही जाता है, जो विशिष्टता इन कथाओं में चरित्र निरूपण के प्रति कथाकार की अतिरिक्त सतर्कता का प्रमाण प्रस्तुत करती है। चरित्रों के धार्मिक प्राचरण का निरूपण इस अर्थ में युक्तिसंगत भी है, क्योंकि इन कथाओं का स्पष्ट लक्ष्य है, जातीय जीवन और संस्कृति का व्यवस्थापन तथा अपने को जातीय परम्परा का अंग बनाना। इसी कारण इन कथाओं में आधुनिक कथा शिल्प की दष्टि से प्रवाहशन्यता, शिथिलता और अगत्यात्मकता के दोष दष्टिगोचर होंगे। पर इन कथाओं के उद्देश्य पर ध्यान देते ही ये दोष विलीन हो जाते हैं। अपने सम: की सामाजिक व्यवस्था और अवस्था के फलस्वरूप स्थापत्य का वह स्वरूप या मानदण्ड उस युग में प्रचलित नहीं था, जो आज है) जीवन और समाज को यथार्थवाद के रूप में परखना इस कथासाहित्य क अभीष्ट नहीं है। इन कथाओं में "सचाई"--जीवन, चरित्र और धार्मिक मूल्य को उसकी सम्पूर्ण सत्ता के साथ प्रतिष्ठित करने की सचाई ही उसका प्राणतत्व है। वर्णन और घटनाओं को कुछ ही रेखाओं द्वारा धर्म सिद्धान्त या दर्शन के किसी खास पहलू को चित्रित करना ही इन कथाओं की कला है) ("प्रागमिक कथाओं की प्रमुख विशेषता उपदेशात्मकता और प्राध्यात्मिकता है। इनमें तीर्थ करों, उनके अनुयायियों एवं शलाका पुरुषों से सम्बन्धित एक या अनेक व्यक्तियों की जीवन रेखाएँ, व्याख्यात्मक रूपक, उद्देश्य प्रधान कथाएँ, वार्ताएँ और ऐसे स्त्री-पुरुषों की जीवन रेखाएँ सम्मिलित हैं, जिन्होंने अपने उत्तरकालीन जीवन में उच्च पद प्राप्त किया है।")' अंकित रेखाएं कुछ अपष्ट, टेढ़ी-मेढ़ी एवं कुछ ही दूर तक चलकर रुक जाने वाली हैं। प्रागमिक कथाओं में नमि, पार्श्व और महावीर इन तीन तीर्थ करों के जीवनचित्र चित्रित हैं। नेमि के साथ कृष्ण, वसुदेव तथा हरिवंश के अन्य व्यक्तियों के परिचय भी विद्यमान हैं। महावीर से सम्बन्धित कथाओं में समसामयिक राजवंशों, प्रसिद्ध सेठ साहूकारों एवं अन्य धर्माराधक व्यक्तियों के जीवन भी वर्णित है। इन वर्णनात्मक उपदेशप्रद कथाओं में कुछ चरित्र ऐतिहासिक पुरुषों के हैं। प्रागमिक प्राकृत कथाओं में कुछ कथाएँ जैन परम्परा से चली आयी हुई जैन धर्मानुमोदित है और कुछ भारतीय कथाओं के नैतिक-धार्मिक कोष से लेकर जैनधर्म पर घटाकर लिखी गयी है। डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने आगमकालीन कथाओं को प्रवृत्तियों के विश्लेषण में बताया है-"प्रारम्भ में, जो मात्र उपमाएँ थीं, उनको बाद में व्यापक रूप देने और धार्मिक मतावलम्बियों के लाभार्थ उससे उपदेश ग्रहण करने के निमित्त उन्हें कथात्मक रूप प्रदान किया गया है"। "नाया धम्मकहानो" में सुन्दर उदाहरण प्राय हैं। कछ प्रा अपने अंगों की रक्षा के लिए शरीर को सिकोड़ लेता है, लौको कीचड़ से आच्छादित होने पर जल में डूब जाती है और नन्दीवृक्ष के फल हानिकारक होते हैं। ये विचार उपदेश देने के लक्ष्य से व्यवहृत हुए हैं। ये चित्रित करते हैं कि प्ररक्षित साधु कष्ट उठाता है, तीव्रोदयी कर्मपरमाणुओं के गुरुतर भार से प्राच्छन्न व्यक्ति नरक जाता है और जो विषयानन्द का स्वाद लेते हैं, अन्त में वे दुःख प्राप्त करते हैं। इन्हीं प्राधारों पर उपदेश प्रधान कथाएं वर्णनात्मक रूप में या जीवन्त वार्ताओं के रूप में पल्लवित की गयी है। अतः स्पष्ट है कि आगमकालीन कथाओं की उत्पत्ति कतिपय उपमानों, रूपकों और प्रतीकों से ही हुई है।) 'इन्द्रोडक्शन बृहत्कथा कोष, पृ० १८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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