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यह है कि मनुष्य में दो प्रकार का बल होता है--प्राध्यात्मिक और शारीरिक । अहिंसा मनुष्य को प्राध्यात्मिक बल प्रदान करती है। धर्य, क्षमा, संयम, तप, दया, योग प्रभति प्राचरण अहिंसा के रूप है। कष्ट या विपत्ति के आ जाने पर उसे सम भाव से सहना , हाय-हाय नहीं करना, चित्तवृत्तियों का संयम न करना एवं सब प्रकार से कष्ट सहिष्ण बनना अहिंसा है, यह आत्मबल का प्रतीक है। यह वह शक्ति है जिसके प्रकट हो जाने पर व्यक्ति कष्टों के पहाड़ों को भी चूर-चूर कर आगे बढ़ता है । क्षमाशील और कष्टसहिष्णु हो जाने पर व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास होता है ।।
निरंकुश और उच्छंखल भोगवृत्ति हिंसा है। हिंसक व्यक्ति का प्राचरण अत्यन्त क्रूर होता है। वह अपने आचरण और व्यवहार द्वारा सदा समाज को कष्ट पहुँचाता रहता है । स्वार्थ से ऊपर उठने पर ही अहिंसा की भावना आती है। जब तक व्यक्तिमात्र अपना ही स्वार्थ और हित देखता रहता है, तब तक वह हिंसा की सीमा से बाहर नहीं निकलता है। अतः दृष्टिकोण को उदार बना कर विचारसहिष्णु बनना व्यक्ति के लिये परमावश्यक है।
जो व्यक्ति समाज कल्याण और समाज गठन की भावना को अपने जीवन में महत्व नहीं देता है, वह समाज का अच्छा सदस्य नहीं है। सहयोग और सहकारिता समाज गठन का प्रमुख सिद्धान्त है । हरिभद्र ने अपनी कथा के पात्रों में अच्छे-अच्छे कर्मठ सहयोगियों का उल्लेख किया है । मनोरथदत्त, और वसुभूति जैसे सहयोगी व्यक्ति समाज को संगठित करने में सहायक हो सकते हैं। हरिभद्र को समाज-रचना के निम्नलिखित प्रमुख सिद्धान्त है:-- (१) सच्चरित्र व्यक्तियों के निर्माण का प्रयत्न । स्वस्थ समाज के लिये ज्ञानी
और चरित्रनिष्ठ व्यक्तियों की आवश्यकता । (२) परिग्रहपरिमाणवत--समाजवाद या आवश्यकतानुसार संचय, शेष के त्याग
द्वारा समस्त मानव समाज में समता स्थापित करना । (३) जातिगत भेदभाव को दूर करके मानवमात्र की समता की उद्घोषणा । __ जन्मजात जाति की अपेक्षा आचरण को महत्त्व देना तथा जातिमात्र
से किसी को भी हीन न समझना। (४) अन्यायोपाजित वित्त का निषेध । (५) न्यायोपार्जित वित्त का दान देना और समाज के प्रत्येक कार्य में सहयोग । (६) उदार दृष्टिकोण का आविर्भाव । (७) निचले स्तर की असभ्य, जंगली या शिकारी जातियों में भी पूर्ण मानवता
का विकास । चांडाल जैसी जाति में करुणा, दया, ममता का संचार कर उनके चरित्र को उदात्त धरातल पर प्रतिष्ठित कर जातिवाद की खाई को दूर किया है। खंगिल के लिये कहा गया है-- "न एस कम्मचांडालो, किन्तु जाइचण्डालो" (सं० १० २६१)। अतः
जाति व्यवस्था को लौह शृंखला का विघटन और चरित्र की
महत्ता । (८) तीब्र धर्म भावना जाग्रत करके वर्ग विद्वेष उकसाने की अपेक्षा एकता और
राष्ट्रीयता का विकास, वर्गहीन समाज में प्रगतिशील संस्कृति को प्रतिष्ठा। (E) अन्धविश्वासों का अपहरण । (१०) उच्चन्याय दृष्टि, मानवता और प्रेमभाव का विकास ।
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