________________
श्वेतवस्त्र, श्वेतमुक्ताहार से विभूषित, श्वेत पुष्पमालाओं को सिर पर धारण किये हुए तथा श्वेत सुगन्धित चन्दन से विलिप्त शरीरवाला वह सुशोभित था। उपर्युक्त प्रसंग में श्वेत रंग की योजना धवल की अपेक्षा भिन्न है। उदात्त और पवित्रता को वह अनुभूति नहीं, जो धवल के प्रसंगों में आई है। अतः यह मानना पड़ेगा कि हरिभद्र को रंग योजना का बड़ा सुन्दर ज्ञान था।
हरिभद्र ने समराइच्चकहा में हाथी का वर्णन तीन रूपों में किया है। जब युद्ध के अवसर पर कवि हाथी का निरूपण करता है तब वह "करिवरविरायन्तमेहजालं" (स० पृ० २८) कहकर मेघघटा के समान कृष्णवर्ण के हाथी का उल्लेख करता है। जब विवाह के अवसर पर हाथी को उपस्थित करना होता है तो "कविसिगारियमत्तुंग धवलगइन्द समारूढो" (स० पृ० ७८७) अर्थात् श्रृंगारित उत्तुंग धवल गजेन्द्र के ऊपर वर को सवार कराता है। जब धर्मोत्सव या किसी धर्मसभा में पात्र को जाना होता है, तो वहां हाथी के वर्णन में कवि किसी रंग का उल्लेख नहीं करता। कवि इस प्रसंग का वर्णन करता हुआ कहता है--"अणे यलोय परिगो करेणु यारूढो इमस्स चेव जणो बम्भयत्तो त्ति" (स० पृ० २००) उक्त तीनों प्रसंगों को रूपयोजना पर विचार करने से अवगत होता हैं कि विवाह के अवसर पर धवल हाथी मांगलिक माना जाता है। कृष्णवर्ण वजित माना गया है। ज्योतिष शास्त्र में जहां शकुन-अपशकुन का विचार किया गया है, वहां ग्रहवर्ण विचार के आधार पर शनि का वर्ण कृष्ण होने से उसे अशुभ कहा है। वराहमिहिर ने सूर्य का लाल, चन्द्रमा का गौर, मंगल का अतिलाल, बुध का हरा, गुरु का पीत, शुक्र का श्याम चित्र एवं शनि का कृष्ण वर्ण कहा है। अतः विवाह के अवसर पर शनि के कृष्ण वर्ण का उपयोग सभी दृष्टियों से वजित माना गया है। यही कारण है कि सूक्ष्मदर्शी कवि ने विवाह के अवसर पर धवल हाथी उपस्थित किया है। युद्ध का संकल्प ही क्रोध से उत्पन्न होता है, जैन दर्शनानुसार युद्ध के संकल्प को उत्पन्न करने वाला क्रोध अनन्तानुबन्धी और अप्रत्याख्यान के रूपों से संबंधित है। अतः मेघघटा के समान हाथी का वर्णन यहां सर्वथा उपयुक्त है। धर्मसभा या किसी अन्य उत्सव में जाने के अवसर पर हाथी किसी भी वर्ण का हो सकता है। अतः हरिभद्र ने उसके वर्ण का निर्देश नहीं किया।
हरिभद्र पिंगलकश और पिंगल नेत्रों को रूपविकृति का कारण मानते हैं। अतः जहां किसी कुरूप व्यक्ति का चित्रण करना होता है, वहां इस रंग के नेत्रों या केशों का वर्णन अवश्य करते हैं। इस पिंगल वर्ण में दो रूप मिश्रित है--नील और पीत। इन दोनों के मिश्रण से राजसगुण का सृजन होता है। अतः दृष्टा और दृश्य इन दोनों के लिए पिंगल वर्ण के नेत्र और केश कष्टकर होते हैं। सौम्य या सुन्दर की एक सामान्य परिभाषा यह है कि जो प्राकृति दर्शकों के मानस में आह्लाद उत्पन्न करे और आनुपातिक रूप से रमणीय प्रतीत हो, वह सौम्य या सुन्दर है। नील और पीत का मिश्रण नेत्रों को सुखकर नहीं होता है। अतः हरिभद्र ने आपिंगलवट्टलोयणो पिंग केसो (स० पृ० १०) कहकर उपर्युक्त तथ्य की सत्यता प्रमाणित की है।
हरिभद्र ने लालवर्ण का वर्णन क्रोध, स्नेह, अनुराग और कोमलता को अभिव्यक्त करने के लिए किया है । लालवर्ण का तारतम्य निम्न पांच विशेषणों द्वारा प्रदर्शित है--
(१) अशोक-पल्लवारक्त (आरक्त पल्लव निवसणो--स०पृ०८७-८८-३८० तथा ४४)। (२) विद्रुम-रक्त (विद्द मलयायम्बहत्थ, पृ० ७६)। (३) रुधिरारक्त (रुहिरारक्त, पृ० ७५)।
१--रक्तश्यामो भास्करो गौर इन्दुः--बृह० सं० २।४ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org