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________________ ३३० कलाकार रंगों की योजना इस रूप में करता है, जिससे पाठक अपनी दृष्टि संवेदना द्वारा उन रंगों को संवेदनाएं ग्रहण कर सकें । कुशल कलाकार का काम यह है कि वह पिट में स्थित फोबिया को प्रकाश के प्रति क्रियाशील बनाये। जिस कलाकार को रंगविज्ञान को यथार्थ जानकारी होती है, वह रंगों की समीचीन योजना कर पाठकों की दृष्टि संवेदना को सन्तुलित रूप में उत्तेजित कर सकता है और रंगान्धता से पाठकों की रक्षा कर सकता है । श्राधुनिक प्रकाश विज्ञान बतलाता है कि प्रकाश की जो किरणें पदार्थ पर पड़ती हैं, वे वहां से प्रतिक्षिप्त होकर देखने वाले की प्रांख तक पहुंचती हैं और देखने वाले के नेत्र की कनीनिका के भीतर से जाकर " रेटीना" नामक केन्द्र पर पदार्थ का प्रतिबिम्ब उत्पन्न करती हैं । इसीसे पदार्थ का दर्शन होता है । दार्शनिकों ने भी रंग के महत्त्व पर विचार किया है । भारतीय दर्शन के सत्व, रजस् और तमस् इन तीन गुणों के अन्तर्गत प्रधान रंगों का समावेश होता है । सत्वगुण का तर पाण्डु रंग, रजस् का लाल और हरा तथा तमस का कृष्ण वर्ण माना गया है। जैन दर्शन में कषाय और योग से अनुरंजित श्रात्मप्रवृत्ति का रंगों द्वारा विवेचन करते हुए बताया है कि भ्रमर के समान कृष्णलेश्या, नीलम के समान नीललेश्या, कबूतर के समान कपोतले श्या, सुवर्ण के समान पीतलेश्या, कमल के समान पद्मलेश्या और शंख के समान शुक्ललेश्या होती है'। इन छहों प्रवृत्तियों को लेश्या कहा गया है । इस संक्षिप्त दार्शनिक विवेचन के प्रकाश में भी इतना ही कहा जा सकता है कि कलाकार द्वारा नियोजित रंगों का दार्शनिक दृष्टि से भी महत्त्व होता है । हरिभद्र ऐसे कलाकार हैं, जिन्होंने प्रकृति के पटपरिवर्तन में जिन रंगों की योजना की है, व नितान्त सार्थक और उनकी सूक्ष्म निरीक्षण संबंधी विशेषता के परिचायक हैं । हरिभद्र ने समराइच्चकहा में सभी रंगों की योजना की हैं। श्वतवर्ण का दो रूपों में चित्रण किया है । प्रासाद, श्रातपत्र, छत्र, ध्वजा, शरत्कालीन मेघ, हाथी श्रादि का निरूपण धवलवर्ण द्वारा और मुक्ताहार, पुष्पमाला, चन्दन लेप, वस्त्र, शंख आदि का श्वेतवण द्वारा चित्रण किया है। जहां इन्हें सत्वगुण का उत्कर्ष दिखलाना श्रभीष्ट होता है, वहां धवल का उल्लेख करते हैं और जहां सत्व सामान्य का रूप प्रदर्शित करना होता है, वहां श्वेत को विशेषण बनाते हैं । श्रजितदेव तीर्थंकर का चित्रण करता हुआ कवि कहता है कि वह भगवान् देवों द्वारा धारण किये गये कुन्द के समान धवला पत्र 'सुरधरियकुन्द धवलायवत्ता' (स० पृ० १७० ) से सुशोभित थे । यहां कुन्द के समान उल्लिखित धवलवर्ण अजितदेव तीर्थकर की महत्ता को तो बतलाता ही है, पर साथ ही उनके सम्बन्ध में सत्वोत्कर्ष उत्पन्न करता है । धवलातपत्रतीर्थंकर की शोभा का हेतु होने पर पाठक के मन में श्रद्धारूप सत्व का उत्कर्ष उत्पन्न करता है । वीतरागता के होने पर किसी भी प्रकार का वैभव सरागता का कारण न बन जाय, इसीलिए हरिभद्र न देवों द्वारा सम्पादित की जाने वाली विभूति के पूर्व कोई न कोई विशेषण जोड़ा हैं । ये समस्त विशेषण साभिप्राय हैं। यहां धवलातपत्र में धवल विशेषण इस बात को चरितार्थ कर रहा है कि आतपत्र के लगाये जाने पर भी उनमें किसी भी प्रकार का विकार नहीं है । वे जलकमलवत् निर्लिप्त हैं, उनकी वीतरागता अक्षुण्ण है । अतः स्पष्ट हैं कि सत्वोत्कर्ष प्रकट करने के लिए ही यहां धवलातपत्र का प्रयोग किया गया है । उत्तुंगधवलपायारमण्डियं (स० पृ० ८०३ ) - - द्वारा बताया गया है कि चक्रपुर नगर उत्तुंगधवल प्राकार से मण्डित था। यहां कवि ने प्राकार की धवलता द्वारा नगर के उदात्त १ - - छप्पयनील कवोदसु हेमंबुज संखसणिहा पणे । गोम्मटसार जीव० गा० ४६४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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