________________
३१६
८--विरोधाभास ।
जहां यथार्थतः विरोध न होकर विरोध के आभास का वर्णन हो, वहां यह अलंकार होता है । इस अलंकार में आपाततः दो परस्पर विरोधी वस्तुओं का एक ही पाश्रय में वर्णन किया जाता है ।
सयलकलासंगो विय मयलञ्छणो, पढमजोव्वणत्थो वि वियाररहिरो, विणिज्जिय कुसुमबाणो वि तवसिरिनिरो, परिचत्तसव्वसंगो वि सयलजणोवयारी ।---स० पृ० ४५ । - समस्त कलाओं से युक्त रहने पर भी वह मृगलांछन था। यहां विरोध प्रतीत होता है कि जो समस्त कलाओं में प्रवीण है, वह मृगलांछन वाला कैसा हो सकता है । इसका परिहार यह है कि वह समस्त कलाओं में प्रवीण होने पर भी चन्द्रमा के समान सौम्य था। प्रथम यौवन में रहने पर भी विकारहीन था, यह भी विरोध है, यहां चढ़ती जवानी में विकाररहित होना संभव नहीं। परिहार में कहा जा सकता है कि प्रथम यौवनावस्था में रहने पर भी संयमी होने से विकारहीन था । सौन्दर्य में कामदेव को परास्त करने पर भी तपश्री से सहित था। यहां कामदेव और तपश्री में विरोध प्रतीत होता है, परिहार में वह सुन्दर होने पर भी तपस्वी था। समस्त संग का त्याग करने पर भी वह सकल जनोपकारी था, यहां समस्त संग का त्याग करके सकल जनोपकारी बनने में विरोध प्रतीत होता है । परिहार में कहा जायगा कि समस्त परिग्रह का त्याग कर देने पर भी समस्त संसार का वह उपकारी था।
९--सन्देह ।
हरिभद्र ने चमत्कार उत्पन्न करने के लिए इस अलंकार की भी योजना है। किसी वस्तु को देखकर साम्य के कारण जहां दूसरी वस्तु का सन्देह हो जाय, वहां यह अलंकार प्राता है ।
(१) वच्छीउत्तेण य नहमऊहपडिवन्नसलिलसंकेण ।
पक्खालिउमणवज्जं निम्मवियं तीए नहयम्मं ॥ स० पृ० ६३ । नाई को उस कुसुमावली के नख की प्रतिच्छाया से जल की आशंका हुई थी। उसने जल से प्रक्षालन कर नहछ कर्म किया। यहां नाई को नख की प्रतिच्छाया के कारण जल की आशंका हो गयी, पर जैसे ही उसने नहछ कर्म प्रारंभ किया उसे निश्चय हो गया कि यह जल नहीं है, अतः उसने नखों को जल से प्रक्षालित कर अपना कार्य प्रारंभ किया। यह निश्चयान्त सन्देह का सुन्दर उदाहरण है।
(२° समराइच्चकहा में निश्चयगभित सन्देह का उदाहरण बहुत ही सुन्दर पाया है। निम्न पंक्तियां दर्शनीय हैं:__ एत्तियं पुण तक्कै मि, एस भयवं पुरन्दरो। रयणवईए भणियं । हला, सहस्सलोयणदूसिनो खु एसो सुणीयइ । मयणमंजुयाए भणियं । जइ एवं, ता नारायणो । रयणवईए भणियं । हला, सो वि न एवं कणयावयायच्छवी । मयणमज्जुयाए भणियं । ता कामदेवो भविस्सइ। रयणवईए भणियं । हला, कुप्रो तस्स वि हु हरहुंकारहुय-वहसिहापयं गयस्स ईइसो लायण्णसोहावयारो। स० ८ । पृ० ७५७-७५८ ।
नायिका और सखी का वार्तालाप हो रहा है । सखी नायक के रूप-सौन्दर्य का अंकन करती हुई कहती है-"वह इन्द्र है" । नायिका निराकरण करती हुई उत्तर देती है कि इन्द्र सहस्र नेत्रों से दोषयुक्त सुना जाता है । सखी कहती है--"यदि ऐसी बात है तो वह
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org