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________________ उसके घरों में ऐसे मनोहर नूपुर पहनाये गये जो अपनी अनुरणत ध्वनि से स्वभवन की वापिकाओं के हंसो को भी आकृष्ट करते थे। यहां नपुर की अनुरणन ध्वनि द्वारा हंसों के प्राकृष्ट किये जाने की उत्प्रेक्षा की गई है । (४) बद्धो य थणहरोवरि मणहरवरपउमरायदलघडियो । पवरो पवंगबन्धो नियम्बसंसत्तो तह य॥ स० पृ० ६५ । उसके स्तनों पर मनोहर पद्मरागमणियों से घटित वस्त्र बांधा गया था, जो नितम्ब और स्तन के मध्य पुल का कार्य करता था। (५) पढमं दीसिहिइ इमा मोत्तूण ममं ति रयणछायाए । __ पडिवन्नमच्छराए व प्रोत्थयं तीए सव्वंगं ॥ स० पृ० ६६ । मुझे छोड़ अन्य किसी रत्न की दीप्ति नहीं दिखलायी पड़े, अतः मात्सर्य भाव से ही चडामणि ने अपनी कान्ति द्वारा सर्वा को व्याप्त कर लिया था। (६) निभकुसुमभरोणयरसाउमुहलोह असणबाणेहिं ।। कासकुडएहि य दढं जत्थ हसन्ति व्व रण्ण इं॥ स० पृ० २३८ । __ पुष्पों से समन्वित वृक्षों पर गुंजार करते हुए भ्रमरों द्वारा तथा फूले हुए कमल द्वारा वह वन हंसता हुआ प्रतीत होता था। (७) एसा वच्चइ रयणी विमुक्कतम सिया विवण्णमुही। ___ पाणीयं पिव दाउं परलोयगरस्स सूरस्स ॥--स० पृ० २६५ । परलोकगत सूर्य को जल देने के लिये ही अन्धकार रूपी केशों से रहित रात्रि चली जा रही है। यहां रात्रि की उत्प्रेक्षा नायिका के समान की गई है । (८) जीए महुमत्तकामिणोलीलाचंकमणणे उरखेण ।। भवणवणदीहिरोयररया वि हंसा नडिज्जन्ति ॥ स० पृ० ४६३ । जहां मधुमत्त कामिनियों के लीलापूर्वक गमन करने से भवन दीपिका में रत हंस भी व्याकुलित किये जाते हैं। (९) संझाए बद्धरामो व्व दिणयरो तुरियमत्थसिहरंमि । संकेयगठाणं पिव सुरागिरिगुज समल्लियइ ॥ स० पृ० ७५० । वित्थरइ कुसुमगन्धो अणहं दिज्जन्ति मंगलपईवा ।। सन्ध्या में दढानरागी-सा सर्य अस्ताचल की चोटी पर संकेत के समान सुमेरु पर्वत के कुंज में छिप रहा है। उत्तम पुष्प सौरभ फैल रहा है, मंगल दीपक जलाये जा रहे है और रमणियां रमणभवनों में काम पूजन कर रही है । सन्ध्या के इस वर्णन में उत्प्रेक्षा का प्रयोग किया गया है। (१०) दिवसविरमंमि जाया मउलावियकमललोयणा नलिणी । अइदूसहसूरविनोयजणियपसरन्तमुच्छ व्व ॥ स० पृ० ७६८ । सूर्य के अस्त होने पर कमल लोचना नलिनी ने अपनी आंखों को बन्द कर लिया है । ऐसा मालूम हो रहा है कि अत्यन्त दुःसह सूर्य रूपी पति के वियोग के कारण उसे मूर्छा ही पा गयी है। अत्यमियंमि दिणयर दइयंमि व वड्ढियाणुरायंमि । रयणिवहू सोएण व तमेण तुरियं तमो गहिया ॥ स० पृ० ७६८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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