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(३) बहुविहरुक्ख साहा संघट्टसंभवन्तवणदवं । वणवपत्तिकन्दरविणिन्तसीहं ॥ सीय पहित्यिकडे वरकयारदिसमं । विसमखल दुक्ख हिण्डन्तभीयमुद्धमयं || मयरुहिरपाण मुइयघोरन्तसुत्तवग्धं । वग्घभयपलायन्तमहिसउलं । महिसउलचलणग्गलग्गगरुयअयगरं । अयगरविमुक्तनीसाससद्द भीमं । भीमबहुविहभमन्तकव्यायलुत्तसत्तं ।
सत्तखयकालसच्छहं सिलिन्धनिलयं नाम पव्वयं ति । स० पृ० ५१६
(४) पत्तो य महुरम। रुय मन्दन्दोले न्तकयलिसंघायं । संघामिलिकपुरिसजक्ख परिहुत्तवणसण्डं ॥ araण्डविवि फलरससंतुष्ठ विहंग सद्दगम्भीरं । गम्भीरजलहिगज्जियहित्यपिओ सत्तसिद्धयणं ॥ सिद्धयणमिलियचारणसिहरवणारद्धहुरसंगीयं संगीयमुरयघोसाणन्दियनच्चन्तसिहिनियरं ॥ सिहिनिय रखुक्कण्ठियप सन्नवरसिद्ध किन्नरिनिहाय । किन्नरिनिहायसे वियलवंगलवलीहरच्छायं । छायावन्तमणोहरमणियडविलसन्तरयणनिउरुम्बं ।
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निरुम्बठिप्प हडसिहरुप्पे यं च रयर्णागिर ॥ स० पृ० ५४७-५४८ छट्ठभवो । २ -- अर्थालंकार |
अब हम शब्द, अर्थ और अर्थ के आश्रित रहने वाले तथा अर्थ को चमत्कृत करने वाले अर्थालंकारों पर विचार करेंगे | अग्निपुराण ( ३४४ । १ ) में कहा है कि अर्थों को अलंकृत करने वाले अर्थालंकार कहे जाते हैं तथा अर्थालंकार के बिना शब्द सौन्दर्य मनोहर नहीं हो सकता । अर्थालंकारों में सादृश्यमूलक अलंकार प्रधान हैं और सभी सादृश्यमूलक अलंकारों का प्राणभूत अलंकार उपमा है । अप्पय्यदीक्षित ने अपनी चित्रमीमांसा में लिखा है कि काव्यरूपी रंगभूमि में उपमारूपी नटी अनेक भूमिका भेद से नृत्य करती हुई काव्य मर्मज्ञों का चित्तरंजन करती है ।
सादृश्य अलंकारों में सादृश्यता कहीं उक्तिभेद से वाच्य होती हैं और कहीं व्यंग्य | वास्तव में सादृश्य का नाम ही उपमा है, अतः उपमा अलंकार अनेक अलंकारों का उत्थापक है ।
हरिभद्र ने समराच्चकहा में उपमा, अनन्वय, उत्प्रेक्षा, रूपक, श्लेष, परिसंख्या, विरोधाभास, सन्देह, कारणमाला, अर्थान्तरन्यास, एकावली, क्रमतुल्ययोग्यता, स्वभावोवित, भाविक, संसृष्टि, उदात्त समुच्चय, परिकर और संकर अलंकारों का प्रयोग किया है । उपमा अलंकार के उदाहरणों की भरमार है । गद्य और पद्य दोनों में ही यह अलंकार व्याप्त हँ । उपमा अलंकार के निम्न उदाहरण दृष्टव्य हैं :--
(१) रत्नावली, मुक्तावली, चमरपंक्ति और पट्टांशुक माला -- प्रस्तुत उपमेय के लिये अप्रस्तुत उपमान क्रमशः सौदामिनी, जलधारा, बलाकापंक्ति और इन्द्रायुध की छाया का प्रयोग किया गया है । सोयामणीओ विव विहायन्ति, रयणावलीओ, जलधारा विव दीसंति मुत्तावलीओ वलायापन्तियाओ-- स० पृ० १५ ।
( २ ) राजा गुणसेन की सेना का वर्णन करता हुआ कवि कहता है कि उसकी यह सेना बुदिन के समान वृद्धिगत होने लगी । मेघाच्छन दिन दुर्दिन कहलाता है । यहां
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