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करना प्राचीन कथाकृतियों का लक्ष्य है। प्रधानतः इस विद्या में कलापक्ष के अन्तर्गत कथांशों की भगिमा को अभिव्यक्त करने वाले अलंकार, प्रतीक, बिम्ब प्रभति को ग्रहण किया गया है। हम इस पक्ष के अन्तर्गत निम्न विषयों का विश्लेषण प्रस्तुत करेंगे:--
(१) अलंकार-योजना। (२) बिम्ब-योजना। (३) रूप-विधान--रंग-संयोजन ।
भाषा शैली भी कलापक्ष का एक अभिन्न अंग है, किन्तु इसका विचार स्वतंत्र रूप से हो चुका है। अतः उपर्युक्त विषयों का निरूपण ही यहां अभीष्ट है।
(१) अलंकार-योजना
मानव की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति रहती है कि वह इस प्रकार कार्य कर, जिससे वह सुन्दर दिखायी पड़े, और इस तरह बात कहे तथा सुने जिससे सुनने में अच्छी लगे। पशु-पक्षियों में भी इस बात का एकदम अभाव नहीं है। मयूरी का मन लुभाने के लिये मयूर पूंछ फैलाकर उसके सामने नाचता है। पक्षिणी का चित्त आकृष्ट करने के लिये अनेक पक्षियों का स्वर विशिष्ट हो जाता है, जिस प्रकार मुकुट, कैयू र, हार प्रभृति अलंकार अंगों की शोभा बढ़ाते और देखने में नेत्रों को आनन्द देते हैं, उसी प्रकार वाक्यों के भी अलंकार होते हैं। अलंकारयुक्त वाक्यों के सुनने या पढ़ने से कान और मन को आनन्द प्राप्त होता है।
अ र संख्या का निर्दिष्ट परिमाण और वर्ण का मेल रहने से वाक्य सुनने में मीठे प्रीत ोते है, यह ज्ञान मनष्य के मन में बहत पहले उत्पन्न हआ होगा। पर मीठे लगने मात्र से वाक्य सर्वाग सुन्दर नहीं हो पाते, उन्हें मन में चुभना भी चाहिए। अतः इस काय की पूत्ति के लिये साहित्यकार शब्दालंकार और अर्थालंकार का प्रयोग करता है। साहित्य दर्पण में अलंकारों की स्थिति का विवेचन करते हुए लिखा है--"काव्यस्य शब्दायों शरीरम्, रसादिश्चात्मा, गुणाः शौर्यादिवत्, दोषाःकाणत्वादिवत् रीतयो वयवसंस्थानविशेषवत्, अलंकाराः कटकुण्डलादिवत्" इति ।
आचार्य दण्डी ने काव्य-शब्दार्थ की शोभा करने वाला अलंकार माना है । वामन ने यह कार्य गुण का कहा है और अतिशय शोभा करनेवाला धर्म ही अलंकार बताया है। आनन्दवर्द्धन ने अलंकार को अंग--शब्दार्थ के आश्रित माना है और उन्हें कटककुडल आदि के समान--शब्दार्थरूप शरीर का शोभाजनक कार्य कहा है । आनन्दवर्द्धन ने अलंकार लक्षण में अलंकार का रस के साथ कोई संबंध निर्दिष्ट नहीं किया। यह कार्य मम्मट' और विश्वनाथ ने किया है। इनके मत में अलंकार शब्दार्थ की शोभा द्वारा परम्परा संबंध से रस का प्रायः उपकार करते हैं। अपने अलंकार लक्षणों में इन्होंने अलंकार को शब्दार्थ का उस प्रकार अनित्य धर्म माना है, जिस प्रकार कटककुण्डल आदि शरीर के अनित्य धर्म है। इसी प्रकार जगन्नाथ ने भी अलंकारों को काव्य को आत्मा व्यंग्य को रमणीयता प्रयोजक धर्म मानकर ध्वनिवादियों का ही समर्थन किया है। अतएव किसी भी कृति में अलंकारों का रहना आवश्यक-सा है ।।
१--सा० द०प्र० प० पृ० ११--चौखम् प्रकाशन सन् १९५७ । २--काव्यशोभाकरान् धर्मानलंकारान् प्रचक्षते, का० द० २१९ । ३--तदतिशयहेतवस्त्वलंकाराः, का० द० ३।११२ । ४-अंगाश्रितास्त्वलंकाराः मन्तव्याः कटकादिवत ध्व० २।६ । ५-उपकुर्वन्ति तं सन्तं येऽ ग रेण जातचित् का० प्र० ८। ६७ । ६-रसादीनुपकुर्वन्तो ऽलंकारास्ते ऽङ्गदादिवत--स० द० १०।१ ।
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