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कर्मों को नष्ट करने तथा शाश्वत सुख प्राप्त करने के लिये धर्म का उपदेश दिया गया है । यह धर्म मूलतः दो प्रकार का होता है, गृहस्थधर्म और मुनिधर्मं । गृहस्थ. धर्म पंचाणुव्रत, तीन गुणव्रत, और चार शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार का देता है । मुनिधर्म दस प्रकार का है ।
खन्ती य मद्दव- ज्ज -मुत्ती तव संजम य बोधव्वं ।
सच्च सोयं श्राचिणं च बम्भं च जइधम्मो ॥ -- स० प्र० भ० पृ०-- ५७
क्षमा, मार्दव, मुक्ति, तप, संयम, सत्य, शौच, आकिंचिन्य और ब्रह्मचर्य रूप दस प्रकार का मुनि या यतिधर्म होता है । हरिभद्र के इस वर्णन में त्याग के लिये मुक्ति शब्द का प्रयोग हुआ है । इन दोनों प्रकार के धर्मों का मूल सम्यक्त्व है ।
सम्यक्त्व के महत्व के संबंध में हरिभद्र ने पर्याप्त प्रकाश डाला है । इसे आत्मशोधन का प्रधान कारण कहा है । आत्मधर्म की नींव यह सम्यक्त्व ही है । मानव पर्याय को प्त कर जिसने इसे पा लिया, उसका ह, दय इतना परिष्कृत हो जाता है, जिससे मोक्षप्ति निश्चित हो जाती है ।
पांच आस्तिकाय, छः द्रव्य, सात तत्त्व और नौ पदार्थों का यथार्थ श्रद्धान करना सम्यक्त्व है । जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, श्राकाश और काल इन छः द्रव्यों के समूह का नाम लोक है । ये द्रव्य स्वभाव सिद्ध, अनादिनिधन और त्रिलोक के कारण है । गुण और पर्यायरूप से द्रव्य स्वभावतः परिणमनशील हैं। इनमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ये तीनों स्थितियां एक साथ पायी जाती हैं ।
द्रव्य में परिणाम -- पर्याय उत्पन्न करने की जो शक्ति है, वह गुण और गुण से उत्पन्न अवस्था पर्याय कहलाती है । गुण कारण है और पर्याय कार्य । त्येक व्य में शक्तिरूप अनन्त गुण हैं तथा प्रत्येक गुण की भिन्न-भिन्न स्थितियों में होने वाली अनन्त पर्याय हैं । द्रव्य अपने स्वभाव का त्याग न करता हुआ उत्पत्ति, विनाश और धीव्य यक्त रहता है । द्रव्य कूटस्थ नित्य या निरन्वय नहीं माना गया है ।
चेतना गुण विशिष्ट जीव हैं । रूप, रस, गन्ध और स्पर्श से युक्त पुद्गल होता । छहों द्रव्यों में पुद्गल द्रव्य ही मूर्तिक है, शेष पांच द्रव्य अमूत्र्तिक हैं । हमारे निक व्यवहार में जितने पदार्थ आते हैं, वे सभी पुद्गल हैं । पुद्गल द्रव्य के दो भव हैं । अणु और स्कन्ध । अणु पुद्गल का सबसे छोटा टुकड़ा है, यह इन्द्रियों को द्वारा ग्रहण नहीं होता, केवल स्कन्ध रूप कार्य को देखकर इसका अनुमान किया जाता Tata अधक परिमाणुओं के संयोग से उत्पन्न द्रव्य स्कन्ध कहा जाता है । के बनने और बिगड़ने की क्रिया द्रव्य में निरन्तर होती रहती है । गमन करते हुए जीव और पुद्गलों के चलने में सहायक धर्म द्रव्य होता है । ठहरते हुए जीव और पुद्गलों के ठहरने में सहा ५ अधर्म द्रव्य होता है । जो सभी द्रव्यों को अवकाश देता उसे आकाश कहते हैं । वस्तुओं की हालत बदलने में कालद्रव्य सहायक होता है । उपर्युक्त छः द्रव्यों में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश ये पांच द्रव्य अस्तिकाय हैं ।
सात तत्वों में जीव और अजीव ये दो मुख्य तत्त्व हैं, यतः इन दोनों के संयोग से संसार चलता है । जीव के साथ अजीव जड़ पौद्गलिक कर्मों का संबंध अनादिकाल से चला आ रहा है । जीव की प्रत्येक क्रिया और उसके प्रत्येक विचार का प्रभाव स्वतः
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