________________
औचित्य और समृद्धि ये दोनों गुण वर्तमान है। विषय को सरलता और स्पष्टता के साथ अभिठ क्त करने में इनकी कला सक्षम है। प्रकृतार्थ के परिपोषण में प्रयुक्त कारण-कार्य की श्रृंखला शैली को प्रोजस्वी बनाने का कार्य कर रही है।
छन्द विचार
समराइच्चकहा में गद्य के साथ पद्य का भी प्रयोग पाया जाता है। इसके पद्यों में छन्दों को अधिक विविधता नहीं है। केवल गाथा, द्विपदी और प्रमाणिका ये तीन प्रकार के ही छन्द पाये जाते हैं।
गाथा
गाथा तो प्राकृत का सर्वप्रिय छन्द है। इसका व्यवहार सर्वाधिक हुआ है। यह संस्कृत का प्रार्या छन्द है। इसकी परिभाषा निम्न प्रकार बतायी गयी है :--
पढमं बारह मत्ता बीए अट्ठारहेहिं संजुत्ता।
जह पढम तह तीनं दहपंच विहूसिना गाहा ॥ अर्थ--गाथा के प्रथम चरण में १२ मात्राएं होती हैं, दूसरे में १८ मात्राएं, तीसरे चरण में प्रथम चरण के समान बारह मात्राएं और चौथे चरण में पन्द्रह मात्राएं रहती
समराइच्चकहा में ८-१० पद्यों को छोड़ शेष सभी पद्य गाथा छन्द में लिखे गये है। यहां उदाहरणार्थ एकाध पद्य उद्धृत किया जाता है।
पेच्छन्ति न संगकयं दुक्खं अवमाणणं च लोगायो । दोग्गइपडणं च तहा वणवासी सव्वहा पन्ना ॥--स० प्र० भ० पृ० १३ प्रथम चरण "पेच्छन्ति न संगकयं" में १२ मात्राएं हैं, द्वितीय चरण "दुक्खं अवमाणणं च लोगायो" में १८ मात्राएं हैं, तृतीय चरणं-दोग्गइपडणं च तहा" में १२ मात्राएं और चतुर्थ चरण “वणवासी सव्वहा धन्ना" में १५ मात्राएं हैं।
द्विपदी
द्विपदी छन्द का प्रयोग समराइच्चकहा के द्वितीय भव में एक स्थान पर पाया जाता है। इस छन्द का लक्षण निम्न प्रकार है :--
प्राइग इंदु जत्थ दो पढमहि दिज्जइ तिणि घणहरं'। तह पाइवकजुअल परिसंठवहु विविहचित्त सुन्दरं ॥
१--प्रकृत पंङ्गलम् पृ० ५२. पद्य ५४ । २--वही, पृ० १३३, पद्य १५२।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org