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-भाषा शैली
भाषा मनोभावों और विचारों का वहन करती है और शैली उन मनोभावों और विचारों में संगति स्थापित करती हैं । इसी कारण श्रालोचक भाषा को फूल और शैली को सुगन्ध की उपमा देते हैं । भाषा मनोभावों और विचारों की अभिव्यंजना करती है तो शैली उन अभिव्यक्त भावों और विचारों में सौन्दर्य स्थापित करती है । तात्पर्य यह है कि शैली उस अभिव्यक्ति प्रणाली का नाम है, जिसके द्वारा कोई रचना आकर्षक, मोहक, रमणीय और प्रभावोत्पादक बनायी जाय | अच्छी से अच्छी बात भी अनगढ़ शैली में रमणीय प्रतीत नहीं होती है । अतः शैली का किसी भी कृति में प्रत्यधिक महत्त्व है ।
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सप्तम प्रकरण
भाषा-शैली और उद्देश्य
शैली के दो उपादान तत्त्व हैं -- " बाह्य और आभ्यन्तर" । ध्वनि, शब्द, वाक्य, अनुच्छेद, प्रकरण और चिह्न आते हैं । स्वच्छता, स्पष्टता और प्रभावोत्पादकता परिगणित है ।
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हरिभद्र अपने विचारों और भावों को अभिव्यक्त करने के लिये जिस भाषा शैली को अपनाया है, वह पंडितों की अपेक्षा सुसंस्कृत श्रोतानों के लिए हैं । दण्डी और बाण ने राज सभा के लिए लिखा है, पर हरिभद्र ने सुसंस्कृत पाठकों के लिए । गद्य में जैन महाराष्ट्री में शौरसेनी का पुट देकर एक नया संयोग उपस्थित किया है । इनकी शैली में शब्द और अर्थ, भाषा और भाव का रुचिर सामंजस्य लक्षित होता हँ ।
इनकी शैली को सुभग और मनोरम वैदर्भी शैली कह सकते हैं। वर्णन प्रणाली सरल और प्रासादिक है । भाषा को अलंकारों के श्राडम्बर से चित्र-विचित्र बनाने का प्रयास कहीं नहीं दिखलायी पड़ता । गद्य में अपनी विशेषता है । इनका गद्य न तो सुबन्धु के समान " प्रत्यक्षर श्लेषमय" है और न बाण के समान "सरसस्वरवर्णपद" से सुशोभित ही । वाक्य प्रायः छोटे-छोटे हैं । वाक्य विन्यास में भी प्रयास कहीं नहीं हैं । संक्षेप में इनकी शैली में स्पष्टता, रस की सम्यक् अभिव्यक्ति, शब्द विन्यास की चारुता तथा कल्पना की उर्वरता पायी जाती है । इनकी शैली में निम्न दोषों का प्रभाव है
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बाह्य के अन्तर्गत आभ्यन्तर में सरलता,
(१) अनिश्चित, जटिल और लम्बे वाक्यों का प्रयोग, (२) विभिन्न शब्दों द्वारा एक ही भाव की पुनरुक्ति, (३) अनावश्यक और अनुचित शब्दों का प्रयोग, (४) शब्द अथवा वाक्य में अर्थ स्पष्टता का प्रभाव, (५) शब्दाडम्बर,
(६) पाण्डित्य प्रदर्शन की चेष्टा,
(७) विचारों की असम्बद्धता ।
गुणों की दृष्टि से अभिव्यंजना के रुचि, अनुक्रम, स्वरमधुरता और यथार्थता ये चारों गुण पाये जाते हैं । अभिव्यञ्जना में रुचि होने पर परिमार्जित भाषा का व्यवहार किया जाता है । समराइच्चकहा में शब्द और वाक्य नपे-तुले हैं। जहां नगर, वन,
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