________________
२५८
सनत्कुमार विलासवती को अभिमंत्रित आश्चर्यकारी पट से श्राच्छादित कर जल लेने चला जाता है । जब वह कुछ समय के पश्चात् जल लेकर बाहर से वापस लौटता है तो एक अजगर द्वारा विलासवती को भक्षण करते हुए देखता है। प्रिया के अभाव में वह अपने को मृतक के समान मानता हुआ रहने लगा । चारों ओर तलाश करने पर भी जब वह उसका पता न पा सका तो श्रात्महत्या करने को तैयार हो गया ।
अनेक कष्ट सहन करने के बाद विद्याधर के सहयोग से उसे विलासवती की प्राप्ति हो सकी' । अतः अनेक बार नायिका का प्राप्त होना और पुनः बिछड़ जाना तथा प्राप्ति नाना प्रकार की बाधात्रों का उपस्थित होना लोककथा के सिद्धान्त के अनुसार ही ग्रथित किया गया है । हरिभद्र की अधिकांश प्राकृत कथाओं में इस तत्त्व की योजना सरलतापूर्वक की गयी हैं ।
(२०) लोकमानस की तरलता-
लोकमानस की तरलता का तात्पर्य है जनमानस को भावुक वृत्ति का विश्लेषण । भावुकता श्रनादिकाल से मनुष्य के साथ लगी चली आ रही है । भावुकतावश ही मनुष्य अधिकांश कार्यों का सम्पादन करता है । हरिभद्र ने अपनी कथाओं में इस भावुक वृत्ति का बड़ा सुन्दर विश्लेषण किया है। मानव की भावात्मक सत्ता का विवेचन भी इस वृत्ति के अन्तर्गत आता है ।
(२१) पूर्वजन्म के संस्कार और फलोपभोग
--
• हरिभद्र की प्राकृत कथाओं में पूर्वजन्म के संस्कारों का एक जमघट - सा विद्यमान है । कार्य-कारण की श्रृंखला पूर्वजन्म एवं अन्य जन्म-जन्मान्तरों में किये गये कार्यों के साथ ही घटित है । प्रत्येक कार्य के पीछे किये गये कर्मों का संस्कार ही हेतु रूप से श्रवस्थित रहता है तथा मानव के वर्तमान जीवन के निर्माण में विगत कर्मों के संस्कार ही प्रमुखरूप से कार्य करते हैं । हरिभद्र ने समराइच्चकहा में शुभाशुभ कर्म, कर्मार्जन के हेतु कर्मबन्ध की व्यवस्था एवं कर्मफल आदि का बहुत सुन्दर निरूपण किया है ।
(२२) साहस का निरूपण --
हरिभद्र के नायक-नायिकाओं में महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिये साहसिक कार्य करने की अपूर्व क्षमता पायी जाती हं । प्रत्येक पात्र नाना प्रकार की विपत्तियों को सहन करके भी अपने कार्य में सिद्धि प्राप्त करता है । यह प्रवृत्ति प्रायः सभी कथाओंों में समानरूप से विद्यमान हैं। यहां उदाहरणार्थ " शीलवती" कथा का थोड़ा-सा अंश उद्धृत कर उक्त कथन की सिद्धि की जायगी। एक दिन नन्द ने सुन्दरी से कहा--"प्रिये, पूर्व पुरुषों द्वारा अर्जित सम्पत्ति का उपभोग करने में क्या श्रानन्द है । प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्त्तव्य है कि वह अपने पुरुषार्थ से धनार्जन का उपभोग करे। दान देने और धन खर्च करने के कार्य में जिस व्यक्ति की गणना सबसे आगे नहीं होती, उसके जीवन से क्या लाभ? अतः अब में विदेश में जाकर व्यापार द्वारा धनार्जन करूंगा।"
पति के इन वचनों को सुनकर सुन्दरी विनीतभाव से कहने लगी-- "स्वामिन्, के बिना मेरा एक क्षण भी जीवित रहना संभव नहीं । अतः मैं भी आपके साथ
१ - स० स० भ०, पृ० ४२४-४५० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org