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________________ २४२ के प्रति सच्चा विश्वास और आदर भाव उसमें मध्यकालीन ही नहीं है, किन्तु प्राचीन कालीन है। एक बार ह.दय का प्रेम जिस ओर प्रवाहित हो गया, हमेशा के लिए उसे हदय समर्पित कर दिया। कुसुमावली सिंहकूमार को देखते ही अपना हवय समर्पित कर देती है, उसकी प्राप्ति के लिए बेचैन हो जाती है। विवाह के पश्चात् बह पति को देवता और प्राराध्य समझती है। जब उसे सिंहकुमार की प्रांतों के भक्षण का वोहद उत्पन्न होता है, तो वह पति की अनिष्ट संभावना से चिन्तित हो जाती है। अपने दोहद को छिपाकर रखती है। परिणाम यह निकलता है कि वह अस्वस्थ हो जाती है। सिंहकमार मदनलेखा प्रादि सखियों से कसमावली के दोहद को जानकर मतिसागर मन्त्री द्वारा कृत्रिम रूप से उसे सम्पन्न करता है, जिससे गर्भ की असातना से रक्षा हो जाती है। इस स्थल पर कुसुमावली का मातृत्व भाव झांकता दिखलायी पड़ता है । यतः मातत्व संसार को सबसे बड़ी उपलब्धि है, सबसे बड़ी तपस्या, सबसे बड़ा त्याग और सबसे महान् विजय है। अतः माता बनने के उत्साह के कारण कुसुमावली को यह निन्ध • दोहद सम्पन्न करना पड़ता है। यह उसके चरित्र का वह उदात्त धरातल है, जहां नारी का नारीत्व विकसित होता है। उसके समक्ष पतिकल्याण और पुत्रमुखदर्शन इन दोनों का संघर्ष है । वह यह समझती है कि यह निन्छ गर्भ है और मेरे पति को कष्ट देगा। करुणा संचारी रूप में जाग्रत है, वह अपने में खोयी और डुबी-सी रहती है। वह कुछ निर्णय नहीं कर पाती। मंत्री मतिसागर के परामर्शानुसार उत्पन्न होते ही पुत्र को एक दाई को सौंप देती है। उसकी दृष्टि में पुत्र से अधिक पति का मूल्य हो जाता है। अतः मातृत्व को पत्नीत्व दबा देता है। संक्षेप में कुसुमावली रति-प्रीता और प्रानन्दसम्मोहिता का मिश्रित रूप तो है ही, साथ ही इसके चरित्र में कलाप्रियता रहने से यह अत्यन्त भावुक और संवेदनशील है। सच्चे अर्थ में वह भावी पत्नी है, गृहिणी के नाते अपने उत्तरदायित्व का वह पूर्ण निर्वाह करती है। यह परित्र स्थिर ही है, परिवर्तनशीलता प्रत्यक्ष गोचर नहीं हो पायी है। जालिनी मातृत्व को विडम्बना है, विश्व साहित्य में ऐसी माताएं बहुत थोड़ी मिलेंगी। पत्नीत्व का प्राडम्बर भी इसके चरित्र में विद्यमान है। नारी के उक्त दोनों गुणों और रूपों का सर्वापहार बहुत कम स्थानों पर इस प्रकार उपलब्ध होगा। नारी को मायाचारिता उसके जीवन में प्राद्यन्त व्याप्त है। पुत्रघात के लिए यह षड्यन्त्र तैयार करने में किसी राजनैतिक से कम नहीं है। उसका यह पेचीदाशील तामस कोटि की चरमसीमा है। सहानभति और मातृत्व प्रेम की गन्ध भी उसमें नहीं पाने पायी है। उसका आक्रामक अहं सर्वदा शिखीकुमार को मार डालने के लिए सन्नद्ध है। उसके स्वभाव का निर्माण विमाता के परमाणुओं से हुआ है, अतः सर्ववा अपने पुत्र पर प्रति निष्ठुर हो दांव-पेंच चलाती है। एकान्त के किसी क्षण में निर्लज्ज अट्टहास करते हुए अपने पुत्र शिखीकुमार का गला घोंट देना उसे संसार में सबसे अधिक रुचिकर है। लगता है कि उसके जीवन की यही एकमात्र साध है, यही उद्देश्य है। शिखीकुमार ने मुनिव्रत की दीक्षा धारण कर ली है, इस समाचार को सुनकर जालिनी सोमदेव को उसे बुलाने भेजती हैं। सोमदेव शिखीकुमार के पास जाकर कहता है--"प्रापकी माता जी प्रवृजित होने से बहुत दुःखी है। उन्हें यह विश्वास है कि आप अपनी माता जी से विरक्त होकर ही दीक्षित हुए हैं। प्रतः उनका पन्तस् पीड़ा से सन्तप्त है। कृपया माप एक बार यहां चलिए और उन्हें सात्वना दीजिए, जिससे यह स्वस्थ हो सकें।" १-१०, पृ० २२५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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