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(३) चित्रमति, भूषण और कुमार गुणचन्द्र का संवाद ।
(४) अशोक कुमार, कामांकुर और ललितांग तथा कुमार समरादित्य का संवाद । (५) चार मित्रों के वार्तालाप 1
इन प्रमुख संवादों के अतिरिक्त मित्रगोष्ठी के और भी छोटे-छोटे वार्तालाप हैं, किन्तु कथा के विकास में उनका कोई महत्व नहीं है ।
धूर्तगोष्ठी सम्बन्धी निम्न संवाद हैं :--
(१) मूलदेव, कंडरीक, एलाषाढ़, शश और खण्डपाना के वार्तालाप । (२) ग्रामीण और धुर्तो का वार्त्तालाप ।
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राजसभा संवाद से तात्पर्य उन वार्तालापों से हैं, जो राजसभा के बीच में राजा श्रामात्य, राजा सामन्त, राजा-प्रतिहारी, राजा पुरोहित अथवा अन्य किसी राजकर्मचारी से राजा के साथ सम्पन्न हुए हैं । इन संवादों से तत्कालीन राज्य व्यवस्था, प्रजा की धार्मिक स्थिति एवं सामन्तों की मनोवृत्तियों का विशेषतः परिचय प्राप्त होता है । अब गोष्ठी संवादों के कुछ उदाहरण प्रस्तुत कर संवादों की स्वाभाविकता, वाग्विदग्धता एवं कार्यव्यापार की गतिशीलता पर प्रकाश डाला जायगा ।
सिंह कुमार के अद्भुत रूप-सौन्दर्य को देखकर कुसुमावली प्रेम-विहवल हो जाती हैं, पर वह प्रत्यक्ष रूप में अपने प्रेम की पीर को छिपाती हुई अस्वस्थ होने का स्वांग भरती है । सखियां परिचर्या के लिए पधारती हैं और वार्तालाप प्रारम्भ हो जाता है । मदनले खा -"स्वामिनी ! क्यों आप इस तरह से उद्विग्न दिखलाई पड़ रही हैं ? प्रापने गुरु-जन और देवताओंों की पूजा क्यों नहीं की है ? सखियों का सम्मान क्यों नहीं करती हैं ? गुरुजनों को सन्तुष्ट क्यों नहीं करतीं ? परिवार का विनय क्यों नहीं कर रही हैं ? arari को दान क्यों नहीं दिया हँ ? प्रापकी शारीरिक श्रावश्यक. ताों की पूति क्यों नहीं हो रही है ? यदि कुछ रहस्य न हो तो बतलाने की कृपा कीजिए ।"
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aasterपूर्वक अपने को संभालती हुई कुसुमावली "क्या प्रिय सखि से भी कोई बात अकथनीय होती है ? पुष्पचयन करने के कारण परिश्रम होने से ज्वर हो गया है और इसी के कारण सन्तापाग्नि पीड़ित कर रही है । इसी कारण शरीर वेदना है, अन्य कोई उद्वेग का कारण नहीं है "।
मदनलेखा -- "यदि यही बात है तो कर्पूर बोटिका को ग्रहण करो, मैं क्रीड़ा से परिश्रान्त तुम्हारे शरीर की हवा करती हूं।"
कुसुमावली--" इस अवस्था को प्राप्त हुई मुझे कर्पूर बीटिका को ग्रहण करने से कोई लाभ नहीं होगा, अतः हवा करने की आवश्यकता नहीं है । चलो इस बालकदली गृह में, वहां मेरे लिए एक सुन्दर मृदुल पल्लवशय्या तंय्यार करो, इससे मेरा संताप दूर हो जायगा ।"
१- सं०स०, पृ० ७४०, ७४४-४५ । २ -- वही, पृ० ८६५ ।
३-३० हा०, पृ० २१४ ।
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तख्यान ।
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