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परिस्थितियां होती हैं, इसीलिए सबसे अधिक ध्यान इसी बात का रखा है कि परिस्थितियों को किसी शृंखला की कड़ियों की तरह अथवा सोपान परम्परा के क्रम के समान सजाया जाय । जबतक कोई चरित्र अथवा घटना अपने चतुर्दिक कारण रूप से विभिन्न स्थितियों पर आवरण नहीं डाल लेती, तबतक हरिभद्र कथानक को विराम नहीं देते |
हरिभद्र ने कथानकों में साधक और बाधक दोनों प्रकार की घटनाओं का सन्निवेश किया है। सहायक घटनाओं के अन्तर्गत वे सब कार्य या कथा-स्तु को फलागम की ओर ले चलने में सहायक होते हैं । व्यापार आते हैं, जो ये कार्य-व्यापार तीन के प्रयुक्त हुए हैं :--
( १ ) नायक या पात्र के अपने बुद्धि-कौशल, चेष्टा, गुण होकर ।
( २ ) नायक या पात्र के मित्र, सहयोगी और सहानुभूति रखनेवालों के द्वारा । ( ३ ) दैवयोग से आकस्मिक सहायता के रूप में ।
जिस प्रकार कुछ व्यापार कथानक को गतिशील बनाने में सहायक होते हैं, उसी प्रकार हरिभद्र ने कुछ बाधक कार्य-व्यापारों की योजना करके कथानकों को सजीवता प्रदान किया है । बाधक कार्य - व्यापार कथानक के विकास में बाधा उत्पन्न करते हैं, पर उसकी गति को अवरुद्ध नहीं करते । ये बाधक कार्य - व्यापार भी कथा के विकास में पूर्ण सहयोगी का कार्य करते हैं । संक्षेप में हरिभद्र के कथानक तीन प्रकार के हैं --- ( १ ) मानव की बुद्धि, सामर्थ्य, चेष्टा श्रौर गुण के फलस्वरूप घटित होने वाले
कथानक ।
या स्वभाव से प्रेरित
( २ ) दैवयोग या कर्मविपाक से घटित होने वाले कथानक, जिनके आगे मनुष्य की बुद्धि और शक्ति निरर्थक जान पड़ती है । दैवयोग या संयोग से घटित होने वाली घटनाओं के समक्ष मनुष्य को घुटने टेकने पड़ते हैं और वह यन्त्रवत् कार्य करता चला जाता है ।
( ३ ) पात्रों या नायक के सहायक और विरोधियों के द्वारा घटित होने वाली घटनाएं |
इस प्रकार हरिभद्र के अपने सरल और जटिल दोनों प्रकार के कथानकों के अन्तर्गत पात्रों के संघर्ष और द्वन्द्वों को दिखलाया है । चतुर्दिक फैले हुए वातावरण, परिस्थितियां, समाज, धर्म, राजनीति, प्रकृति, युद्ध एवं विभिन्न मानवीय मनोवृत्तियों का बहुत ही सुन्दर विश्लेषण हुआ है । कथानक योजना में हरिभद्र बहुत ही निपुण हैं, कथात्मक व्यापार का निर्देश इतनी पटुता से उन्होंने किया है कि चरित्रों का उदात्त और उत्कर्ष स्वयमेव अभिव्यंजित हो गया है । प्रारम्भ, उत्कर्ष और अन्त की स्थिति भी कथानक में भली प्रकार पायी जाती 1
प्रधान या मूल कथानक के साथ अवान्तर या उप-कथानकों की श्रन्विति सम्यक प्रकार से हुई है । जितनी अवान्तर कथाएं ग्रायी हैं, उन सबका लक्ष्य निदान और कर्मशृंखला की अनिवार्यता दिखलाना है । मूलकथा में जिस निदान का जिक्र किया जाता है, उसका समर्थन प्रवान्तर कथाओं के द्वारा किया गया है । यद्यपि यह मानना पड़ता है कि प्रत्येक भव की कथावस्तु के उपकथानक प्रायः समानं हैं । किसी प्राचार्य का मिलना और प्रात्मकथा के रूप में अपने पुनर्जन्म की परम्परा के नायक को साथ अन्य किसी प्राचार्य और उससे सम्बद्ध पात्रों की पुनर्भवावली को कहना तथा कर्म सिद्धांत का विस्तृत निरूपण करना ग्रादि बातें हरिभद्र के कथानकों के प्रधान अंग हैं । इनके कारण कथानकों में आश्चर्य और कौतूहल का पूरा समावेश हँ ।
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