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बहुत दुःखी हुआ और उसके मन में विरक्ति की भावना उत्पन्न हो गयी । वह नगर से निकल कर एक महीने में सुपरितोष नाम के तपोवन में पहुंचा और वहां आर्जव कौण्डिन्य नाम के आचार्य के समक्ष तापसी दीक्षा धारण कर ली । उसने उग्रतम तपश्चरण करने के लिए मासोपवास ग्रहण किया । उपवास के अनन्तर प्रथम ही घर में पारणा करने का नियम भी लिया ।
अपनी वृद्धावस्था में राजा पूर्णचन्द्र अपने पुत्र गुणसेन को राज्य का भार देकर सपत्नीक तपश्चरण करने वन में चले गये । गुणसेन राजा होने के उपरान्त क्षितिप्रतिष्ठित नगर के वसन्तपुर में जलवायु परिवर्तन के लिये आकर रहने लगा। एक दिन वह वनभ्रमण के लिये घोड़े पर सवार होकर निकला । जंगल में पहुंचने पर वह सहस्राम्भवन में विश्राम करने लगा। इसी समय हाथ में सन्तरे लिये हुए दो तापसकुमार आए । उन्होंने राजा का अभिनन्दन किया । राजा गुणसेन ने अभ्युत्थान, आसन आदि के द्वारा उनका सम्मान किया। उन्होंने कहा -- “महाराज ! कुलपति कहां हैं ?" उन तापसकुमारों से तपोवन का परिचय पाकर राजा गुणसेन कुलपति के पास पहुंचा । आसनदान कुशलप्रश्न आदि के पश्चात् राजा न े कुलपति को समस्त ऋषियों सहित अपने यहां भोजन का निमन्त्रण दिया। कुलपति ने निमन्त्रण स्वीकार करते हुए कहा - " वत्स ! अग्निशर्मा तपस्वी मासोपवासी हैं । उसे छोड़कर हम सभी लोग तुम्हारे यहां पधारेंगे।" राजा कुलपति से आदेश लेकर अग्निशर्मा के निकट पहुंचा और उससे विरक्ति का कारण पूछा। अग्निशर्मा की शारीरिक कुरूपता, दीनता आदि के अतिरिक्त कल्याण मित्र गुणसेन को भी अपनी विरक्ति का हेतु बताया । गुणसेन को अपना नाम सुनते ही बचपन की सारी बातें याद हो आयीं, फिर भी उसने स्पष्टीकरण के लिये पूछा कि आपके वैराग्य के अन्य कारण तो ठीक हैं, किन्तु गुणसेन कल्याण मित्र किस प्रकार है ? अग्निशर्मा से उसका स्पष्टीकरण सुनकर राजा गुणसेन ने अपना परिचय देते हुए क्षमा याचना की । अग्निशर्मा से यह अवगत कर कि पारणा वेला अब निकट है, दो चार दिन के बाद ही अवसर आनेवाला है, तो उसने आग्रहपूर्वक अपने यहां भोजन का निमन्त्रण दिया । afree तापसी ने निमन्त्रण स्वीकार करने में इधर-उधर किया, पर राजा गुणसेन के अत्यधिक आग्रह के कारण उसे स्वीकार करना पड़ा।
अग्निशर्मा जब पारणा के निमित्त राजा के यहां पहुंचा तो राजा के सिर में अपार वेदना होने से और राज कर्मचारियों के राजा की परिचर्या में व्यस्त रहने के कारण वह पारणा ग्रहण किये बिना ही लौट आया । शिरोव्यथा कम होने पर राजा को पारणा दिवस का ध्यान आया तो उसने अग्निशर्मा के विषय में तलाश की । उसे वापस हुआ जानकर वह तापस आश्रम में आया और कुलपति के समक्ष पश्चाताप प्रकट करते हुए उसने अपनी भूल स्वीकार की । वह पुनः अग्निशर्मा के पास गया और पश्चाताप प्रकट करते हुए उसे अपने यहां आमन्त्रित किया ।
इस बार जब पारणा दिवस आया तो उसी दिन राजा को सूचना मिली कि मानभंग नृपति ने अर्द्धरात्रि के समय सीमा पर आक्रमण कर दिया है । इस सूचना से राजा उत्तेजित हो गया । शत्रु के ऊपर आक्रमण करने के लिये सेना तैयार होने लगी । चारों ओर भगदड़ मच गयी । सभी अपने-अपने कार्य में व्यस्त दिखलायी देने लगे । इसी बीच अग्निशर्मा पारणा के हेतु राजगृह में प्रविष्ट हुआ । हाथी-घोड़ों की भीड़ देखकर वह चकित हो गया और आगे न बढ़ सकने के कारण वहीं से लौट गया । जब राजा को पारणा की स्मृति आयी तो उसने लोगों से तापसी के संबंध में पूछा और यह जानकर कि वह अभी ही यहां से निकला है, राजा तपोवन की ओर चला । मार्ग में, अग्निशर्मा से साक्षात्कार हो गया । उसे वापस लौटाने का पूरा प्रयास किया
राजा
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