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________________ १६६ इस कथा में एक श्रोर समरादित्य जैसे स्थितप्रज्ञ, जितेन्द्रिय और संयमी का चरित्र अंकित है तो दूसरी ओर दास अर्जुन के साथ दुराचार सेवन करने वाली पुरन्दर भट्ट की पत्नी नर्मदा और धनदत्त से अनैतिक सम्बन्ध रखने वाली जिनधर्म की पत्नी बन्धुला का चरित्र भी समाज और जगत् के ऊपर अट्टहास करता हुआ स्थित है । कथाकार ने बिल्कुल अलिप्त भाव से इस कथा में दुराचारी, चोर, लम्पट व्यक्तियों के चरित्रों की झलक दिखलाकर उनके चरित्रों के प्रति विकर्षण उत्पन्न किया है । वातावरण योजना करने में कथाकार ने इस कथा में प्रारम्भ से ही प्रयास किया है । अशोक कामांकुर और ललितांग, इन तीनों गोष्ठी मित्रों की गोष्ठी द्वारा जागतिक चर्चा करके कुमार समरादित्य को विषयपंक में फंसाने की पूरी चेष्टा की गयी हैं, पर श्राश्चर्य यह कि "ज्यों-ज्यों भीजें कामरी त्यों-त्यों भारी हो" के अनुसार कुमार का वैराग्य भाव उत्तरोतर दृढ़तर होता जाता है । वृद्ध, रोगी और मृत ये तीन प्रधान निमित्त भी कुमार की राग्य वृद्धि में सहायक होते हैं। ऐसा लगता है कि प्रकृति का प्रत्येक कण कुमार को संवेग उत्पन्न कराने में सहायक है । माता-पिता के अनुरोध से कुमार का विवाह विभ्रममती और कामलता के साथ सम्पन्न हो जाता है । कुमार के उपदेश का प्रभाव उनके ऊपर भी पड़ता है । वे भी विरक्त हो जीवन पर्यन्त ब्रह्मचर्य से रहने का प्रण कर लेती हैं । इस प्रकार इस कथा को आत्म निरीक्षण की वृत्ति पुष्ट होती जाती है । इस भव की अवान्तर कथाओं में यथार्थवाद ही नहीं, प्रति यथार्थवाद भी मिलता है । शुभंकर और रति की कथा में शुभंकर को अनेक बार पाखाने के कुण्ड जैसे घृणित स्थान में डाल दिया जाता है। यहां विभित्सा, घृणा और गन्दगी का प्रति यथार्थवादी चित्रण कर समाज को स्वस्थ बनाने का प्रयास किया है । वैयक्तिक जीवन की इतनी कटु आलोचना अन्यत्र कम ही प्राप्त होती है । यौनवृत्ति की व्यापकता और विभिन्न यौन वर्जनाओं के व्यापक रूप उद्घाटित किये गये हैं । इस कथा के आरम्भ में प्रमुख पात्र समरादित्य की मानसिक स्थिति का विवरण और उसकी पीड़ा का परिचय दिया गया है । संसार की असारता और उसकी स्वार्थपरताओं के बीच होने वाले द्वन्द्वों का सुन्दर उद्घाटन किया गया है । कुमार समरादित्य प्रनन्त सुख-दुःखमय जीवनधारा की विचित्र लहरी - लीला को देख-देखकर उसकी प्रात्मा भड़क उठती हैं और महामृत्यु की कल्पना से उसकी रग-रग में उदासीनतामय घृणा व्याप्त हो जाती है । वासना की पुतली घृणामयी नारी अवसादमय गहन गहर की ओर ले जाती प्रतीत होती है । हिंसा का घोर ताण्डव उसे संतप्त करता है । अतः वह राजलक्ष्मी को त्याज्य समझता है, उसके प्रति उसकी तनिक भी आसक्ति नहीं हूँ । मनोहर राजकन्याओं में उसे तनिक भी प्राकर्षण नहीं प्रतीत होता है । गोष्ठीसुख का अनुभव करने पर भी वह "जल में भिन्न कमल हैं" की तरह अलिप्त रहता है । इस कथा को दुहरे कथानकवाली कथा कह सकते हैं। कुमार समरादित्य अपने वैराग्य की पुष्टि के लिये स्वयं ही इस प्रकार की कथाएं सुनाता है, जिनमें संसार के एकान्ततः चरित्र निहित हैं। यहां कथानक के भीतर से उसीसे सम्बद्ध दुसरा कथानक खड़ा हो १ - स० पृ० ६ । ६२१ । २ - वही, ९ । ९२६ ॥ ३ -- न एत्थ अन्नो उवाप्रति पेसिप्रो वच्चहए -- । स० प०। ६०५ । ४ --न सेवए गेयाइकला - स० पू० ६ । ८६४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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